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________________ ८५६ ] [ पं० रतनचन्द जैन मुस्तार अर्थ- समस्त मोहनीय कर्म के उपशम या क्षय से जैसा आत्मा का स्वभाव है उस अवस्थारूप जो चारित्र होता है वह प्रथाख्यातचारित्र अथवा यथाख्यातचारित्र है । मोहनीय कर्म के क्षय या उपशम होने के पूर्व जिसे प्राप्त नहीं किया इसलिये वह अथाख्यात है। 'अर्थ' शब्द 'अनन्तर' अर्धवर्ती होने से समस्त मोहनीय कर्म के क्षय या उपशम के अनन्तर वह यथास्यातचारित्र प्राविभूत होता है यह उक्त कथन का तात्पर्य है । समस्त मोहनीय कर्म के उपशम या क्षय से पूर्व स्वरूपाचरणचारित्र उत्पन्न नहीं हो सकता, अतः सम्यक्त्वा चरण को स्वरूपाचरणचारित्र नहीं कहा जा सकता है । प्रवचनसार में भी कहा है- "स्वरूपेचरणं चारित्रं दर्शनचारित्रमोहनीयोदयापादित समस्तमोहीमामावादत्यन्त निविकारो जीवस्य परिणामः ।" दर्शन मोहनीय और चारित्रमोहनीयकर्मोदय से उत्पन्न हुए जो मोह, क्षोभरूप भाव, उन समस्त मोह-क्षोभरूप भावों के अभाव से उत्पन्न हुआ जो जीव का प्रत्यन्त निर्विकार परिणाम, वह अत्यन्त निर्विकार परिणाम स्वरूपाचरणचारित्र है जिससमय तक सूक्ष्मचारित्रमोहनीय कर्मोदय से लेशमात्र भी अबुद्धिपूर्वक क्षोभ परिणाम है, उससमय तक स्वरूपाचरणचारित्र उत्पन्न नहीं हो सकता है । स्वरूपाचरणचारित्र, चारित्रगुरण की विशेष पर्याय है । जिससमय तक क्षोभरूप पूर्वपर्याय का व्यय नहीं हो जाता उससमय तक अत्यन्त निर्विकाररूप चारित्रगुण की स्वरूपाचरणचारित्रपर्याय का उत्पाद नहीं हो सकता स्वरूपाचरणचारित्र से पूर्व सूक्ष्म साम्परायरूप चारित्रगुण की पर्याय रहती है । चारित्रगुण की सूक्ष्मसाम्परायरूप पर्याय का तो व्यय न हो और स्वरूपाचरण अर्थात् यथाख्यातरूप पर्याय का उत्पाद हो जावे सो सम्भव नहीं है। एक पर्याय में दूसरी पर्याय या दूसरी पर्याय का अंग संभव नहीं है । दर्शनगुण की मिथ्यात्वरूप पर्याय में सम्यक्त्वरूप पर्याय का अंश भी सम्भव नहीं है । मिथ्यात्वरूप पर्याय के व्यय होने पर ही सम्यक्त्वरूप पर्याय का उत्पाद सम्भव है जो चतुर्थगुणस्थान में स्वरूपाचरणचारित्र का मंश मानते हैं, उन्होंने पर्याय व स्वरूपाचरणचारित्र का स्वरूप ही नहीं समझा। सम्यक्स्याचरण को स्वरूपाचरण कहने से जिन वचनों पर अश्रद्धा का दोष आता है। - जै. ग. 20-11-69 / VII / पं सरदारमल जैन, सच्चिदानन्द स्वसंवेदन तथा स्वरूपाचरण में अन्तर शंका- स्वसंवेदन और स्वरूपाचरण में क्या असर है ? समाधान - स्वसंवेदन ज्ञानगुरण की पर्याय है और स्वरूपाचरण चारित्रगुण की पर्याय है । श्री अमृतचन्द्र आचार्य ने प्रवचनसार गाथा ३० की टीका में कहा है। "यदा किलेखनीलरत्नं दुग्धमधि वसत्स्व प्रभाभारेण तदभिभूय वर्तमान दृष्ट, तथा संवेदन मय्यात्मनोऽभिवात् कर्मशेनाकार्यभूतान् समस्त ज्ञेयाकारान भिव्याप्य वर्तमान कार्यकारणत्वेनोपचयं ज्ञानमर्थानभिभूय वर्तत इत्युच्यमानं न विप्रतिविध्यते ।" जैसे दूध में पड़ा पड़ा हुआ इन्द्रनील रत्न अपने प्रभासमूह से दूध में व्याप्त होकर वर्तता हुआ दिखाई देता है, वैसे ही संवेदन पर्थात् ज्ञान भी प्रात्मा से अभिन्न होने से कर्ता-अंश से आत्मा को प्राप्त होता है। करण-अंश के द्वारा वह संवेदन ज्ञानपने को प्राप्त हुया कारणभूतपदार्थों के कार्यभूत समस्त ज्ञेयाकारोंमें व्याप्त होकर वर्तता है । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012009
Book TitleRatanchand Jain Mukhtar Vyaktitva aur Krutitva Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJawaharlal Shastri, Chetanprakash Patni
PublisherShivsagar Digambar Jain Granthamala Rajasthan
Publication Year1989
Total Pages918
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size20 MB
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