SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 898
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ [पं. रतनचन्द जैन मुख्तार : में शंका आदि, जातिमद, कुलमद आदिरूप आचरण असंयतसम्यग्हष्टि के नहीं होता है । इसरूप आचरण न होने का नाम सम्यक्त्वाचरण है। यह सम्यक्त्वाचरण सम्यग्दर्शनगूण का अविनाभावी है। मिथ्यात्व, सम्यग्मिथ्यात्व और अनन्तानबन्धी चतुष्क सम्यग्दर्शन की घातक कर्मप्रकृतियां हैं, इनके उदय के प्रभाव में सम्यग्दर्शन उत्पन्न होता है। इन कर्मप्रकृतियों के उदयाभाव में जब सम्यग्दर्शन उत्पन्न होता है, उसके साथ-साथ उस सम्यग्दर्शन के अनुकूल आचरण भी होने लगता है, वही सम्यक्त्वाचरण है। सम्यक्त्वाचरण का कथन करने के लिये श्री कन्दकन्द आचार्य ने इसप्रकार कहा है एवं चिय णाऊण य सव्वं मिच्छत्तदोस संकाई। परिहर सम्मत्तमला जिणभणिया तिविहजोएण ॥६॥ श्री जिनेन्द्र भगवान के द्वारा कहे हुए सम्यग्दर्शन में मल उत्पन्न करनेवाले शंकादि मिथ्या दोषों का मन, वचन, काय इन तीनों योगों से त्याग करो। इस प्रकार सम्यक्त्वाचरण को जानो। मूढ़त्रयं मदाश्चाष्टौ तथानायतनानि षट् । अष्टौ शङ्कादयश्चेति हगदोषाः पञ्चविंशति । तीन मूढ़ता, आठमद, छह अनायतन और शंकादि आठ दोष ये सम्यग्दर्शन के २५ दोष हैं। यह सम्यक्त्वाचरण चारित्रगुण की पर्याय नहीं है, किन्तु सम्यग्दर्शनगुण की पर्याय है -जै. ग. 30-4-70/lX/ र. ला. जैन, मेरठ शंका--आगमपद्धति से सम्यक्त्वाचरण, अध्यात्मपद्धति से स्वरूपाचरण मानने में कोई दोष होगा क्या? समाधान-ऐसा कोई आर्ष वचन नहीं है। बिना आर्ष वचन के मात्र अपनी कल्पना के आधार पर सम्यक्त्वाचरण को स्वरूपाचरण मानना उचित नहीं है। जो साधु पुरुष हैं उनका नेत्र मात्र एक आगम ही है। कुन्दकुन्द आचार्य ने कहा भी है आगमचक्खू साहु इदियचक्खूणि सम्वभूदाणि । देवा य ओहिचक्खू सिद्धा पुण सम्वदोचक्खू ॥ ३॥३४॥ प्रवचनसार -जं. ग. 29-1-70/VII/ सच्चिदानन्द शंका-चारित्रपाड़ में जो सम्यक्त्वाचरण कहा है क्या वह अविरती के द्रव्यचारित्र (निर्दोष सम्यक्त्व ) को प्रधान कर कहा है। समाधान-सम्यग्दर्शन के २५ दोष हैं ( शंकादि ,मद ८, अनायतन ६, मूढ़ता ३ )। अपने आचरण के द्वारा इन २५ दोषों को न लगने देना वही सम्यक्त्वाचराचारित्र है। जिसका कथन श्री कुन्दकन्द आचार्य ने चारित्रपाहुड़ में किया है। असंयत सम्यग्दृष्टि के द्रव्यचारित्र तो मुनि तुल्य हो सकता है, किन्तु अप्रत्याख्यानावरण व प्रत्याख्यानावरण कषायोदय के कारण उसकी चारित्र संज्ञा नहीं है। -ज.ग. 29-1-70/VII/अ. पं. सच्चिदानन्द Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012009
Book TitleRatanchand Jain Mukhtar Vyaktitva aur Krutitva Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJawaharlal Shastri, Chetanprakash Patni
PublisherShivsagar Digambar Jain Granthamala Rajasthan
Publication Year1989
Total Pages918
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size20 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy