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________________ व्यक्तित्व और कृतित्व ] [ ८३६ "ण चाणताणुबंधिच उक्कवावारो चारित्ते णिष्फलो, अपच्चक्खाणादिअणंतोवयपवाह काररणस्स णिप्फलत्तविरोहा ।" धवल पु. ६ पृ० ४३ । अर्थात्-चारित्र के घात में अनन्तानुबंधी चतुष्क का व्यापार निष्फल भी नहीं है, क्योंकि चारित्र की घातक अ..त्याख्यानावरणादि कषाय के अनन्त उदयरूप प्रवाह में अनन्तानबंधीकषाय कारण है । इसलिये निष्फलत्व का विरोध है। यदि अनन्तानबंधीकषाय को स्वरूपाचरणचारित्र का घातक मान लिया जायगा और उसके उदयाभाव में स्वरूपाचरणचारित्र का सद्भाव स्वीकार किया जायगा तो सम्यग्मिथ्यात्व तीसरे गुणस्थान में भी स्वरूपाचरणचारित्र के सद्भाव का प्रसंग आ जायगा, क्योंकि तीसरे गुणस्थान में भी अनन्तानुबधी कषाय के उदय का अभाव है। यदि यह कहा जाय कि चतुर्थगुणस्थान में स्वरूपाचरणचारित्र प्रारम्भ हो जाता है पूर्णता बारहवें गुणस्थान में होती है, मो भी ठीक नहीं है क्योंकि दसवें गुणस्थान तक भी स्वरूपाचरणचारित्र ( यथाख्यात चारित्र ) रूप पर्याय का अंश प्रगट नहीं होता । चारित्रमोह के उदय के अभाव में स्वरूपाचरणचारित्र होता है। दर्शनमोहनीय भी स्वरूपाचरणचारित्र का घातक नहीं है, क्योंकि ऐसा किसी भी आचार्य का उपदेश नहीं है। सम्यक्त्व के घातक कुदेव आदि इनकी पूजा न करना तथा जिन-वचन में शंका न करना इत्यादि ऐसा आचरण सम्यग्दृष्टि का होता है। -जं. ग. 23-11-67/VIII/ कंवरलाल चतुर्थगुणस्थान में स्वरूपाचरण चारित्र नहीं होता शंका-फरवरी १९६६ के सम्मति संदेश में श्री पं० फूलचंदजी ने लिखा है "प्रथमोपशम सम्यक्त्व के काल में अनन्तानुबन्धी की अनुदय-उपशम होने से स्वरूपाचरणचारित्र की प्राप्ति आगम में बतलाई है।" इस पर यह प्रश्न होता है कि स्वरूपाचरणचारित्र कौन से गुणस्थानों में होता है ? क्या प्रथमोपशमसम्यग्दृष्टि श्रेणी चढ़ सकता है? क्या अप्रत्याख्यानावरण और प्रत्याख्यानावरण कषाय के उदय में भी स्वरूपाचरण संभव है ? समाधान-वीतरागचारित्र को स्वरूपाचरणचारित्र कहते हैं। श्री परमात्म-प्रकाश अध्याय २ गाथा ४० की टीका में "स्वरूपेचरणं चारित्रमिति वीतरागचारित्र" इन शब्दों द्वारा वीतरागचारित्र को स्वरूपाचरणचारित्र कहा है। गाथा ३६ की टीका में "रागद्वेषाभावलक्षणं परमं यथाख्यातरूपं स्वरूपेचरणं f अर्थात-रागद्वेष के अभाव लक्षणवाले परमयथाख्यातरूप स्वरूपाचरणचारित्र को नि बृहद व्यसंग्रह गाथा ३५ की टीका में "शुद्धोपयोगलक्षणनिश्चयरत्नत्रयपरिणतेस्वशुद्धात्मस्वरूपे चरणमवस्थानं चारित्रम् ।" अर्थात्-शुद्धोपयोग लक्षणवाला निश्चयरत्नत्रय परिणतिरूप स्वशुद्धात्मस्वरूप में चरणं अथवा अवस्थानं स्वरूपाचरणचारित्र है। श्री प्रवचनसार गाथा ७ की टीका में श्री १०८ अमृतचन्द्र आचार्य लिखते हैं-"स्वरूपेचरणं चारित्रं । ........... समस्तमोहक्षोभाभावावत्यन्तनिर्विकारो जीवस्य परिणामः।" अर्थात-स्वरूप में चरण करना या रमना सो चारित्र है और वह समस्त मोह क्षोभ के अभाव के कारण अत्यन्त निविकार, ऐसा जीवका परिणाम है। श्री जयसेन आचार्य ने भी पंचास्तिकाय गाथा १५४ की टीका में कहा है कि पूर्व में कहे हुए केवलज्ञान और केवलदर्शनरूप जीव-स्वभाव से अभिन्न यह चारित्र है, जो उत्पाद, व्यय, ध्रौव्यरूप है, इन्द्रियों का व्यापार Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012009
Book TitleRatanchand Jain Mukhtar Vyaktitva aur Krutitva Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJawaharlal Shastri, Chetanprakash Patni
PublisherShivsagar Digambar Jain Granthamala Rajasthan
Publication Year1989
Total Pages918
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size20 MB
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