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________________ ८४० ] [ पं० रतनचन्द जैन मुस्तार न होने से विकार रहित व निर्दोष है, तथा जीव के स्वभाव में निश्चल स्थितिरूप है, क्योंकि स्वरूपेचरणं चारित्रम्, अर्थात् आत्मभाव में तन्मय होना चारित्र है, ऐसा आगम वचन है । इन वाक्यों से स्पष्ट है कि स्वरूपाचरणचारित्र ग्यारहवें बारहवें आदि गुरणस्थानों में होता है । बुद्धिपूर्वक राग के अभाव के कारण जिन आचार्यों ने श्रेणी में शुक्ल ध्यान का कथन किया है उनकी अपेक्षा से श्रेणी में भी स्वरूपाचरणचारित्र हो सकता है, किन्तु चतुर्थं गुणस्थान में प्रसंयत- सम्यग्दष्टि के स्वरूपाचरणचारित्र का किसी भी दि० जैन आचार्य ने कथन नहीं किया है । अनन्तानुबन्धीकषाय सम्यग्दर्शन का घात करने वाली है । जैसा कि श्री नेमिचन्द्र आचार्य ने गोम्मटसार कर्म-काण्ड गाथा ४५ व गोम्मटसार जीवकाण्ड गाथा २८२ में कहा है पढमादिया कसाया सम्मत्तं देससयल चारितं । जहखादं घावंति य गुणणामा होंति सेसावि ॥ अर्थ — अनन्तानुबन्धी कषाय सम्यक्त्व को, अप्रत्याख्यानावरण कषाय देशचारित्र को प्रत्याख्यानावरण कषाय सकलचारित्र को और संज्वलनकषाय यथाख्यात चारित्र को घातती है । इसी कारण इनके नाम भी वैसे ही हैं जैसे इनके गुण ( स्वभाव ) हैं । अन्य प्रकृतियों के नाम भी सार्थक हैं । अनन्तानुबन्धीकषाय के अनुदय-उपशम होने से सम्यग्दर्शनगुण प्रगट होता है, स्वरूपाचरणचारित्र प्रगट नहीं हो सकता, क्योंकि अनन्तानुबन्धी कषाय देशचारित्र, सकल चारित्र या स्वरूपाचरणचारित्र का घातक नहीं है । आर्ष ग्रन्थों में इतना स्पष्ट कथन होते हुए भी कुछ विद्वानों ने भाषा ग्रन्थों में असंयत सम्यग्दष्टि के स्वरूपाचरणचारित्र क्यों लिखा, यह विषय विचारणीय है । हमें तो आर्ष ग्रन्थों के अनुसार ही अपनी श्रद्धा बनानी चाहिए और प्राग्रन्थों के अनुसार ही विवेचन करना चाहिये, क्योंकि इसी में आत्महित है । — जै. ग. 11-4-66/1X / र. ला. जैन शंका-सम्यग्दृष्टि के ही स्वरूपाचरणचारित्र होता है अतः चतुथं गुणस्थान में भी स्वरूपाचरणचारित्र होना चाहिये, क्योंकि वह भी तो सम्यग्दृष्टि है ? समाधान - सम्यग्दृष्टि के ही स्वरूपाचरणचारित्र होता है, किन्तु वह सकलसंयमी मुनि के ही होता है, चौथे गुणस्थान वाले असंयतसम्यग्दृष्टि के नहीं हो सकता, क्योंकि उस चौथे गुणस्थान वाले के तो किंचित् भी चारित्र को न होने देने वाली प्रप्रत्याख्यानावरण कषाय का उदय होने से चारित्र का प्रभाव है, इसीलिये उसका नाम असंयत सम्यग्दष्टि है । स्वरूपाचरणचारित्र का लक्षण इस प्रकार है दर्शन “स्वरूपे चरणं चारित्रं स्वसमय प्रवृत्तिरित्यर्थः । तदेव च यथावस्थितात्मगुणत्वात्साम्यम् । साम्यं तु चारित्रमोहनीयोदयापादितसमस्तमोहक्षोभाभावादत्यन्तनिर्विकारो जीवस्य परिणामः ।" प्रवचनसार गा. ७ अर्थ - अपने स्वरूप में रमरणता स्वरूपाचरण चारित्र है । वह स्वरूपाचरण चारित्र ही यथावस्थित आत्मगुण होने के कारण साम्य है। दर्शन मोहनीय व चारित्रमोहनीय कर्मोदय से होने वाले जो मोह और क्षोभ हैं, उन समस्त मोह क्षोभ से रहित आत्मा के अत्यन्त निर्विकार जो जीवपरिणाम वह ही साम्य अर्थात् स्वरूपाचरण चारित्र है । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012009
Book TitleRatanchand Jain Mukhtar Vyaktitva aur Krutitva Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJawaharlal Shastri, Chetanprakash Patni
PublisherShivsagar Digambar Jain Granthamala Rajasthan
Publication Year1989
Total Pages918
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size20 MB
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