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________________ ८३८ ] [ पं० रतनचन्द जैन मुख्तार । (१) "रागद्वेषा-मावलक्षणं परमं ययाख्यातरूपं स्वरूपे चरणं निश्चयचारिनं भणन्ति, इदानीं तवभावेऽन्यच्चारित्रमाचरन्तु तपोधनाः ।" परमात्मप्रकाश २०३६ । अर्थ-रागद्वेष के अभावरूप उत्कृष्ट यथाख्यातस्वरूप स्वरूपाचरण ही निश्चयचारित्र है। वह इस पचमकाल में भरत क्षेत्र में नहीं है, इसलिए साधुजन अन्य चारित्र का आचरण करो। (२) "स्वरूपेचरणं चारित्रमिति वीतरागचारित्रं ।"परमात्मप्रकाश २।४० । अर्थ-स्वरूप में प्राचरणरूप चारित्र अर्थात् स्वरूपाचरण चारित्र है वह वीतरागचारित्र है। (३) "शुद्धोपयोगलक्षणं निश्चयरत्नत्रयपरिणते शुद्धात्मस्वरूपे चरणमवस्थानं चारित्रम् ।" अर्थ-शुद्धोपयोग लक्षणात्मक निश्चयरत्नत्रयमयी परिणतिरूप आत्मस्वरूप में जो आचरण या स्थिति सो स्वरूपाचरणचारित्र है। (४) "स्वरूपे चरणं चारित्रं । स्वसमय प्रवृत्तिरित्यर्थः । तदेव वस्तुस्वभावत्वात् धर्मः। शुद्धचैतन्यप्रकाश. नमित्यर्थः । तदेव यथावस्थितात्मगुणत्वात् साम्यम् । साम्यं तु दर्शनचारित्रमोहनीयोदयापावितसमस्तमोहक्षोमामावा. बत्यन्ततिविकारो जीवस्य परिणामः॥७॥"प्रवचनसार अर्थ-स्वरूप में चरण (स्थिरता ) सो चारित्र है। स्वसमय में प्रवृत्ति करना, ऐसा इसका अर्थ है। वही वस्तुस्वभाव होने से धर्म है । शुद्धचैतन्य का प्रकाश करना इसका अर्थ है। वही यथावस्थित आत्मगुण होने से साम्य है। और साम्य, दर्शनमोहनीय और चारित्रमोहनीयकर्म के उदय से उत्पन्न होनेवाले समस्त मोह और क्षोभ के अभाव के कारण जीवका अत्यन्त निर्विकार परिणाम है । अर्थात् जीव का वह अत्यन्त निर्विकार परिणाम हो स्वरूपाचरणचारित्र है। बुद्धिपूर्वक राग के अभाव की अपेक्षा शुद्धोपयोगरूप वीतरागचारित्र का प्रारम्भ श्रेणी में होता है अथवा बुद्धि-प्रबुद्धिपूर्वक समस्तराग का अभाव उपशांतमोह आदि गुणस्थानों में होता है इसलिए शुद्धोपयोगरूप वीतरागचारित्र अर्थात् स्वरूपाचरणचारित्र उपशांतमोह आदि गुणस्थानों में होता है। अतएव स्वरूपाचरणचारित्र चतुर्थादि गणस्थानों में संभव नहीं है। चतुर्थगुणस्थान में तो संयम नहीं है, क्योंकि उसका नाम ही असंयतसम्यग्दृष्टि है। अतः चतुर्थगुणस्थान में स्वरूपाचरणचारित्र संभव नहीं है । किसी प्राचार्य ने भी चतुर्थगुणस्थान में स्वरूपाचरणचारित्र के सद्भाव का कथन नहीं किया है। स्वरूपाचरणचारित्र की घातक संज्वलनकषाय है, क्योंकि स्वरूपाचरणचारित्र को परम यथाख्यातचारित्र कहा है । अनन्तानुबन्धीकषाय तो सम्यग्दर्शन की घातक है अथवा चारित्र को घात करने वाली अप्रत्याख्यानादि प्रकृतियों के अनन्त उदयरूप प्रवाह की कारण है। कहा भी है पढमो दसणघाई विदिओ तह घाई देसविरइत्ति । तइओ संजमघाई चउस्थो जहखाय घाईया ॥१।११५॥ प्रा.पं.सं. अर्थ-प्रथम कषाय अर्थात् अनन्तानुबन्धी सम्यग्दर्शन का घात करती है । द्वितीय अप्रत्याख्यानावरणकषाय देशवत की घातक है। ततीय प्रत्याख्यानावरणकषाय सकलसंयम का घात करती है। और चतुर्थसंज्वलनकषाय यथाख्यातचारित्र अर्थात स्वरूपाचरणचारित्र का घात करती है। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012009
Book TitleRatanchand Jain Mukhtar Vyaktitva aur Krutitva Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJawaharlal Shastri, Chetanprakash Patni
PublisherShivsagar Digambar Jain Granthamala Rajasthan
Publication Year1989
Total Pages918
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size20 MB
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