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________________ व्यक्तित्व और कृतित्व ] यह प्रश्न श्री अकलंकदेव आचार्य के सामने भी था, इसीलिये उन्होंने कहा है "एषां पूर्वस्य लाभे भजनीयमुत्तरम् । उत्तरलाभे तु नियतः पूर्वलाभः । युगपदात्मलाभे साहचर्यादुभयोरपि पूर्वत्वम्, यथा साहचर्यात् पर्यंतनारवयोः पर्वतग्रहणेन नारदस्यग्रहणं नारदग्रहणेन वा पर्वतस्य तथा सम्यग्दर्शनस्य सम्यग्ज्ञानस्य वा अन्यतरस्यात्मलाभे चारित्रमुत्तरं भजनीयम् ।" ( राजवार्तिक १1१ ) [ ८३७ सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान, सम्यक्चारित्र इन तीनों में पूर्व की प्राप्ति होने पर उत्तर की प्राप्ति भजनीय हैं, किन्तु उत्तर का लाभ होनेपर पूर्व के लाभ का नियम है। सम्यग्दर्शन- सम्यग्ज्ञान इन दोनों का एक ही काल आत्मलाभ है । तातें सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान इन दोनों के पूर्वपना है । जैसे साहचर्यं तं पर्वत और नारद इन दोऊनिका एकके ग्रहरण से ग्रहणपना होय है । पर्वत के ग्रहण करि नारद का ग्रहण होय और नारद का ग्रहण करि पर्वत का ग्रहण होय । साहचर्य हेतु तें एक के ग्रहण तैं दोऊनिका ग्रहण होइ है । तैसे ही सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान इन दोऊनिका साहचर्य संबंध तैं एक के ग्रहण किये तिन दोऊनिका ग्रहरण होय है । यातें सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान इन दोऊनि में से एक का आत्मलाभ होते उत्तर जो चारित्र है सो भजनीय है, ऐसा अर्थ जानना । अर्थात् सम्यग्दर्शन होने पर सम्यक्चारित्र का होना अवश्यंभावी नहीं है । इसी बात को श्री गुणभद्र आचार्य ने भी उत्तरपुराण में कहा है समेतमेव सम्यक्त्व ज्ञानाभ्यां चरितं मतम् । स्यातां विनापि ते तेन गुणस्थाने चतुर्थ के ।। ७४ । ५४३ ।। ( उत्तरपुराण) अर्थ – सम्यक्चारित्र सम्यग्दर्शन व सम्यग्ज्ञानसहित होता है, किन्तु सम्यग्दर्शन और सम्यग्ज्ञान चतुर्थगुणस्थान में सम्यक्चारित्र के बिना भी होते हैं । श्री अकलंकदेव व श्री गुणभद्र दोनों वीतरागी महानाचार्य हुए हैं उन्होंने किसी की वकालात करने के लिए ऐसा नहीं लिखा कि सम्यग्दर्शन के साथ चारित्र अवश्यम्भावी नहीं है, किन्तु उन्होंने वह लिखा जो उनको गुरु परम्परा से उपदेश में प्राप्त हुआ था । इन आचार्यों के इतने स्पष्ट वाक्य होते हुए भी जो यह लिखते हैं तथा उपदेश देते हैं- " सम्यक्त्व के साथ चारित्र भी अवश्यंभावी है जिसे मिथ्यात्वमोहनीय नहीं, अनन्तानुबन्धी रोकता है और जब मिथ्यात्व तथा अनन्तानुबन्धी के उपशम आदि से सम्यक्त्व प्रगट होता है तब उसका सहभावी चारित्र भी अवश्य प्रकट होता है वह चारित्र ही स्वरूपाचरण चारित्र है ।" ( जैन संदेश २३-११-६७ ) ऐसे लिखने वाले ने या तो उपर्युक्त आर्ष ग्रन्थों का अध्ययन नहीं किया और यदि अध्ययन किया तो उनको आर्षं वाक्यों पर श्रद्धा नहीं है । जिनको स्वयं श्राषं वाक्यों पर श्रद्धा नहीं है और आर्ष वाक्यों का खंडन करना ही जिनका स्वभाव बन गया है, उनकी क्या गति होगी वे स्वयं जानें । *** **** **** - जै. ग. 20 व 27-2-69 तथा 13-3-69 / VII, VIII, III / ... दसवें गुणस्थान तक स्वरूपाचरण का श्रंश भी नहीं है शंका -- स्वरूपाचरण चारित्र कौन से गुणस्थान में होता है ? समाधान - सर्वप्रथम स्वरूपाचरणचारित्र का लक्षण जान लेना श्रावश्यक है, क्योंकि स्वरूपाचरणचारित्र का लक्षण जान लेने से ही यह ज्ञात हो जावेगा कि स्वरूपाचरणचारित्र कौनसे गुणस्थान में होता है तथा चौथे गुणस्थान में क्यों नहीं होता ? Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012009
Book TitleRatanchand Jain Mukhtar Vyaktitva aur Krutitva Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJawaharlal Shastri, Chetanprakash Patni
PublisherShivsagar Digambar Jain Granthamala Rajasthan
Publication Year1989
Total Pages918
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size20 MB
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