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________________ [ ८२९ व्यक्तित्व और कृतित्व ] जीव का स्वभाव अप्रतिहत ज्ञान और दर्शन है जो कि जीव से अनन्यमय है, उन ज्ञान, दर्शन में नियतरूप से अस्तित्व चारित्र है ऐसा जिनेन्द्रदेव ने कहा है । श्री जिनेन्द्रदेव की साक्षी देते हुए श्री कुन्दकुन्दाचार्य कहते हैं कि ज्ञान-दर्शन जीवस्वभाव नियतरूप से अस्तित्व है अतः सिद्ध भगवान के चारित्र है । यदि सिद्ध भगवान के चारित्र न माना जाय तो ज्ञान-दर्शनरूप जीवस्वभाव में नियतरूप से अस्तित्व के अभाव का प्रसंग श्राजाने से सिद्धान्त के अभाव का प्रसंग श्रा जायगा । ववहारेणुवदिस्सद्द णाणिस्स चरित दंसणं गाणं । विणाणं ण चरितं ण दंसणं जाणगो सुद्धो ||९|| ( समयसार ) ज्ञानी के चारित्र, दर्शन व ज्ञान ये तीनों भाव व्यवहारनय के उपदेश अनुसार हैं अर्थात् भेद विवक्षा से ज्ञानी के चारित्र, दर्शन, ज्ञान ये तीनों भाव हैं । श्रभेदनय की विवक्षा से ज्ञानी के ज्ञान भी नहीं है, चारित्र भो नहीं है दर्शन भी नहीं है, शुद्ध ज्ञायक 1 इसी बात को श्री अमृतचन्द्र आचार्य कहते हैं दर्शनज्ञानचारित्रत्वादेकत्वतः स्वयं 1 मेचको मेचकश्चापि समगात्मा प्रमाणतः ॥१६॥ दर्शनज्ञान चारित्रं त्रिभिः परिणतत्वतः । एकोपि त्रिस्वभावत्वाद व्यवहारेण मेचकः ॥१७॥ प्रमाणदृष्टि से एक काल में यह आत्मा अनेक अवस्थारूप भी है, और एक अवस्थारूप भी है, क्योंकि इसके दर्शन, ज्ञान, चारित्र कर तो तीनपना है और श्रापकर अपने एक पना है || १६ || व्यवहार नयकर अर्थात् भेदकर देखा जाए तब आत्मा एक है तो भी तीन स्वभावपने से अनेक प्रकाररूप है, क्योंकि दर्शन, ज्ञान, चारित्र इन तीन भावों से परिणमता है ॥ १७॥ यदि सिद्धों में चारित्र न माना जाय तो प्रमाण की अपेक्षा सिद्धों में जो तीनपना व एकपना है उसमें से तीनपना नहीं बनेगा । जिस व्यवहारनयकर सिद्धों में दर्शन, ज्ञान है, उस व्यवहारनयकर चारित्र भी है । तस्वार्थसार उपसंहार अधिकार श्लोक ९ से १५ तक यह बतलाया है कि कर्त्ता-कर्म-करण प्रादि सातों विभक्ति की अपेक्षा आत्मा दर्शन, ज्ञान, चारित्र इन तीनों से तन्मय है- 'दर्शनज्ञानचारित्रत्रयमात्मैव तन्मयः ।' श्लोक नं. १६ में बताया है कि दर्शन, ज्ञान, चारित्र में तीनों गुरण आत्मा के आबित हैं इसलिये इन तीन गुणमयी आत्मा है । Jain Education International दर्शनज्ञानचारित्रगुणानां य इहाश्रयः । दर्शनज्ञानचारित्रत्रयमात्मैव स स्मृतः ॥ १६॥ इसप्रकार श्री कुन्दकुन्दाचार्य ने तथा श्री अमृतचन्द्राचार्य ने जीव के दर्शन, ज्ञान, चारित्र ये तीन गुण सिद्ध करके या मात्मा को इन तीन गुणरूप बतलाकर यह सिद्ध कर दिया है कि सिद्धों में चारित्रगुण होता है । श्री वीरसेनाचार्य ने भी धवल सिद्धान्तग्रंथ में सिद्धों के क्षायिकचारित्र बतलाया है। श्री वीरसेनाचार्य के वाक्य इसप्रकार हैं For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012009
Book TitleRatanchand Jain Mukhtar Vyaktitva aur Krutitva Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJawaharlal Shastri, Chetanprakash Patni
PublisherShivsagar Digambar Jain Granthamala Rajasthan
Publication Year1989
Total Pages918
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size20 MB
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