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________________ ८२८ ] [पं. रतनचन्द जैन मुख्तार : संयम के उपयुक्त लक्षण वाली संयममार्गणा सिद्धों में नहीं है अतः इस दृष्टि से गो० जी० गाथा ७३२ में सिद्धों में संयममार्गणा का अभाव बतलाया है। संयममार्गणा के भेदों में क्षायिकसम्यकचारित्र ऐसा कोई भेद नहीं है अतः गो० जी० गा०७३२ में सिद्धों में क्षायिकचारित्र का निषेध नहीं है, अपित गो०० गाथा ८२१ के अनुसार श्री नेमिचन्द्र सिद्धान्तचक्रवर्ती ने सिद्धों में क्षायिकचारित्र का विधान किया है। धवल पुस्तक १ पृ० ३६८ पर संयममार्गणा का प्रारम्भ करते हुए लिखा है संजमाणुवादेण अस्थि संजदा सामाइय-छेदोवट्ठावण शुद्धि-संजदा, परिहार-सुति-संजदा, सुहम-सांपराइयसुद्धि-संजदा, जहाक्खादविहार-सुद्धि-संजदा, संजवासंजदा असंजदा चेवि ॥१२३॥ अर्थ-संयममार्गणा के अनुवाद से सामायिकशुद्धिसंयत, छेदोपस्थापनाशुद्धिसंयत, परिहारशुद्धिसंयत, सूक्ष्मसांपरायशुद्धिसंयत, यथाख्यात-विहार-शुद्धिसंयत ये पांच प्रकार के संयत तथा संयतासंयत और असंयत जीव होते हैं ॥१२३॥ इस सूत्र से स्पष्ट हो जाता है कि धवलसिद्धान्तग्रंथ में संयममार्गणा में मात्र उपयुक्त सात भेदों में से सिद्ध जीव किसी भी भेद में गर्भित नहीं होते, अतः संयममार्गणा के कथन में धवल पु०१पृ० ३७८ पर कहा है"सिद्ध जीवों के संयम के उपयुक्त पांच भेदों में से एक भी संयम नहीं है। उनके बुद्धिपूर्वक निवृत्ति का अभाव होने से जिसलिये वे संयत नहीं, इसीलिये वे संयतासंयत भी नहीं हैं। असंयत भी नहीं हैं, क्योंकि उनके संपूर्ण पापरूप क्रियाएं नष्ट हो चुकी हैं ।" इसी बात को धवल पु० ७ पृ० २१ पर निम्न शब्दों में कहा है "विषयों में दो प्रकार के असंयमरूप से प्रवृत्ति न होने के कारण सिद्ध असंयत नहीं हैं । सिद्ध संयत भी नहीं हैं, क्योंकि प्रवृत्तिपूर्वक उनमें विषयनिरोध का अभाव है। तदनुसार संयम और असंयम इन दोनों के संयोग से उत्पन्न संयमासंयम का भी सिद्धों के अभाव है।" क्षायिकचारित्र को संयममार्गणा के उपर्युक्त भेदों में नहीं लिया गया, अतः संयममार्गणा के आधार पर यह नहीं कहा जा सकता कि सिद्धों में क्षायिकचारित्र का निषेध धवलसिद्धान्त ग्रंथ में किया गया है। श्री कुन्दकुन्दाचार्य चारित्र को जीव का स्वभाव बतलाते हैं चारित्तं खलु धम्मो धम्मो जो समो ति णिहिट्ठो। मोहक्खोहविहीणो परिणामो अप्पणो हु समो ॥७॥ प्रवचनसार चारित्र वास्तव में धर्म है अर्थात् जीव--स्वभाव है। धर्म है वह साम्य है। मोह-क्षोभरहित प्रात्मा का भाव साम्य है। सिद्धों में भाव है तथा वह मोह-क्षोभ से रहित है। यदि सिद्धों का परिणाम ( भाव ) मोह, क्षोभ से रहित है तो उनमें चारित्र अवश्य है। यदि सिद्धों में चारित्र नहीं है तो उनमें धर्म भी नहीं है तथा साम्य भी नहीं है। यदि सिद्धों में साम्य का अभाव है तो मोह-क्षोभ का प्रसंग आ जायगा। जिससे सिद्धान्त का ही प्रभाव हो जायगा। जीव सहावं अप्पडिहदसणं अणण्णमयं । चरियं च तेसु णिय अस्थित्तमणिदियं भणियं ॥१५४॥ (पंचास्तिकाय) Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org.
SR No.012009
Book TitleRatanchand Jain Mukhtar Vyaktitva aur Krutitva Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJawaharlal Shastri, Chetanprakash Patni
PublisherShivsagar Digambar Jain Granthamala Rajasthan
Publication Year1989
Total Pages918
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size20 MB
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