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________________ ८३० ] [ पं० रतनचन्द जैन मुख्तार । "एक्स्स कम्मल्स खएण सिद्धाणमेसो गुणो समुप्पणो त्ति जाणावणट्ठमेवाओ गाहाओ एत्थ परविजंति मिच्छत्तं-कसायसंजमेहि जस्सोदएण परिणमइ । जीवो तस्सेव खयात्तविवरोदे गुरणे लहइ ॥७॥" ध. पु.७ पृ० १४ अर्थ-इस 'कर्म के क्षय से सिद्धों के यह गुण उत्पन्न हुअा है' इस बात का ज्ञान कराने के लिए ये गाथायें यहाँ प्ररूपित की जाती हैं जिस मोहनीय-कर्म के उदय से जीव मिथ्यात्व, कषाय और असंयमरूप से परिणमन करता है, उसी मोहनीय के क्षयसे इनके विपरीत गुणों को अर्थात् सम्यक्त्व, अकषाय और संयमरूपसे गुणों को सिद्ध जीव प्राप्त करता है। श्री नेमिचन्द्र सिद्धान्तचक्रवर्ती आचार्य ने गो०० गाथा १६ व ८२१ में तथा श्री वीरसेनाचार्य ने धवल प्र०७१०१४ पर चारित्रमोहनीय के क्षय से सिद्धों में क्षायिकचारित्र का स्पष्टरूपसे उल्लेख किया है। फिर भी कुछ विद्वानाभास इन महान आचार्यों के नाम पर सिद्धों में क्षायिकचारित्र का अभाव बतलाते हैं। इसका कारण यह है कि उनके पास इन महान ग्रन्थों का सूक्ष्मष्टि से स्वाध्याय करने का अवकाश नहीं है। प्रायु आदि प्राण सिद्धों में नहीं, अतः पार्ष ग्रन्थों में सिद्धों को जीव नहीं कहा है, किन्तु इसका यह अर्थ नहीं है कि चैतन्य गुण की अपेक्षा से भी सिद्ध जीव नहीं हैं। "आउआदिपाणाणं धारणं जीवणं । तं च अजोगिचरिमसमयावो उवरिणत्थि, सिद्धसु पाणणिबंधणटुकम्मा भावादो। तम्हा सिद्धाण जीव जीविवपुव्वा इदि ।' (धवल पु० १४ पृ० १३) अर्थ-पाय आदि प्राणों का धारण करना जीवन है। वह प्रयोगकेवली के अंतिम समय से आगे नहीं पाया जाता, क्योंकि सिद्धों के प्राणों के कारणभूत माठों कर्मों का अभाव है। इसलिये सिद्ध जीव नहीं हैं: अधिक से अधिक वे जीवित-पूर्व कहे जा सकते हैं। आर्ष ग्रन्थ के इस कथन को देखकर यदि कोई विद्वानाभास अपेक्षा को न समझकर सिद्धों के जीवत्वभाव का सर्वथा निषेध करने लगे तो यह उसकी मिथ्या कल्पना है, क्योंकि चेतनगुण की अपेक्षा से सिद्ध जीव हैं। इसीप्रकार प्रवत्तिपूर्वक विषयनिरोध की अपेक्षा सिद्धों में संयमाभाव के कथन को देखकर यदि कोई विद्वानाभास सिद्धों में चारित्र का सर्वथा निषेध करने लगे तो यह उसकी मिथ्या कल्पना है, क्योंकि सिद्धों में क्षायिक चारित्र पाया जाता है। क्षायिकभाव कभी नष्ट नहीं होता है, क्योंकि बंध के हेतु का अभाव है, यदि क्षायिकभाव भी नष्ट होने लगे तो सिद्धों का पूनः संसार में अवतार होने लगेगा, जिससे आगम में विरोध आ जायगा, क्योंकि सिद्धपर्याय को सादि अनन्त कहा है । 'सादिनित्यपर्यायाथिको यथा सिद्धपर्यायोनित्यः।' मालापपद्धति 'नहि सकलमोह भयावुद्भवच्चारित्रमंशतोऽपि मलवदिति शश्वदमलवदात्यन्तिकं तवमिष्ट्रयते ।' ( श्लोकवार्तिक ) अर्थात-चारित्रमोह के क्षय से उत्पन्न होनेवाला क्षायिकचारित्र शाश्वत है, कभी नष्ट होने वाला Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012009
Book TitleRatanchand Jain Mukhtar Vyaktitva aur Krutitva Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJawaharlal Shastri, Chetanprakash Patni
PublisherShivsagar Digambar Jain Granthamala Rajasthan
Publication Year1989
Total Pages918
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size20 MB
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