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________________ ३४ ] [ पं० रतनचन्द जैन मुख्तार : जिन पुरुषों ने श्रुतभक्ति में (उसके अध्ययन में, चिन्तन में, निज-परकल्याणार्थ जिनवचन उपदेश में, उसके लेखन, शोधन, सम्पादन-प्रकाशनादि कार्यों में) ही अपना जीवन समर्पित किया है, भला उन परम आदरणीय महापुरुषों के प्रति अपनी श्रद्धा-भक्ति आखिर प्रगट की जाय तो कैसे की जाय ? सचमुच उनका जीवन धन्य है। विरागी पुरुषों का कथन है कि प्रात्मकल्याण ही जिनका लक्ष्य है तथा "यही एक कार्य वर्तमान पर्याय में कर लेने योग्य है" ऐसी जिनकी बलवती श्रद्धा है व प्राचार्यो-सन्तपुरुषों के वचनों में जो अनुरक्त हैं ऐसे महात्मा सहज ही शान्तरसप्रधान वीतराग दशा को प्राप्त होते हैं। स्मृतिग्रन्थ या अभिनन्दन-ग्रन्थ मात्र उनकी प्रशंसा के लिये नहीं होते, जिन्हें वे समर्पित किये जाते हैं या जिनके नाम से वे प्रगट होते हैं; अपितु उनकी महत्ता का विश्व को, समाज को पूरा परिचय मिले, उनके प्रति विश्व श्रद्धावनत होते हुए उनके चरित्र का अनुसरण करे और आत्मकल्याण में प्रवृत्त हो; यही हेतु समझना उपयुक्त है । यह उन महानुभावों का एक पूर्ण चरित्र ग्रन्थ होता है और इतिहास को लिपिबद्ध करता है। श्रीमान श्रद्धेय स्व० ब्र० पण्डित रतनचन्दजी सा० मुख्तार धर्मशास्त्र के मर्मज्ञ और सिद्धान्त ग्रन्थों के विशिष्ट अभ्यासी विद्वान् थे, धवलादि ग्रन्थों के शोधन सम्पादन में आपका बड़ा महत्त्वपूर्ण सहयोग रहा। जिनवाणी की उपासना आपका मुख्य कार्य था। आप वर्षों से शास्त्रिपरिषद् के 'शंका समाधान' विभाग के मंत्री रहे। प्राय के अन्त तक भी 'जैन गजट' और 'जैन दर्शन' पत्रों में निरन्तर गूढ़ विषयों की शंकाओं का उत्तम समाधान अपने गहन-श्रुताभ्यास के बल पर देते रहे थे । परन्तु, दूसरों के समाधान में, अपनी साधना में व्यवधान न आने पाये, इसके प्रति सावधान थे। द्वितीय प्रतिमाधारी व्रती श्रावक होने से जीवन का ज्ञान-ध्यान वैराग्यमय होना अत्यन्त स्वाभाविक था। इन श्रुतवत्सल, चारित्र्यवान, मार्गप्रभावक, त्यागी और विद्वान् श्रीमान् आदरणीय मुख्तार सा० के प्रति मैं भक्ति समेत अपने नमन अर्पण करता हूँ। एक आदरणीय सत्पुरुष सिद्धान्ताचार्य पण्डित कैलाशचन्द्र सिद्धान्त शास्त्री, वाराणसी श्री ब्रह्मचारी रतनचन्दजी मुख्तार समाज की एक विभूति थे। उन्होंने अपनी चलती हई मुख्तारी से विरत होकर अपने शेष जीवन का सम्पूर्ण समय जिनवाणी के स्वाध्याय को समर्पित कर दिया था। प्रारम्भ में जनका ज्ञान सर्व साधारण की तरह ही सामान्य था। संस्कृत-प्राकृत से एक तरह अनभिज्ञ थे, हिन्दी भी साधारण जानते थे किन्त सतत स्वाध्याय के बल पर उन्होंने जो ज्ञानार्जन किया वह आश्चर्यजनक ही है । वही एक ऐसे स्वाध्याय प्रेमी थे जिन्होंने दोनों सिद्धान्त ग्रन्थों ( धवल-महाधवल-जयधवलादि ) की आद्योपान्त स्वाध्याय की थी। वे करणानुयोग के अधिकारी विद्वान् थे। उनका जीवन सादा और त्यागमय था। ज्ञान और त्याग दोनों ही दृष्टियों से वे एक आदरणीय सत्पुरुष थे। उनके 'शंका समाधान' अध्ययनपूर्ण होते थे। वे बड़े सरल स्वभावी थे। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012009
Book TitleRatanchand Jain Mukhtar Vyaktitva aur Krutitva Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJawaharlal Shastri, Chetanprakash Patni
PublisherShivsagar Digambar Jain Granthamala Rajasthan
Publication Year1989
Total Pages918
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size20 MB
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