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________________ व्यक्तित्व और कृतित्व ] [ ३३ परम श्रद्धेय * पण्डित महेन्द्रकुमार शास्त्री 'महेश', मेरठ परम श्रद्धेय स्वर्गीय मुख्तार सा० की स्मृति में एक ग्रन्थ प्रकाशित हो रहा है, यह प्रशंसनीय प्रयास है। सिद्धान्तसूर्य ब्र० रतनचन्दजी मुख्तार एक आदर्श त्यागी एवं अभीक्ष्ण ज्ञानोपयोगी विद्वान् थे । ख्याति-लाभ की अभिलाषा से सर्वथा दूर रह कर आपने समाज की भारी सेवा की। जैनपत्रों में प्रकाशित उनकी सैद्धान्तिक शङ्कासमाधान चर्चा से कई व्यक्तियों के ज्ञान की वृद्धि हुई। मैं पूज्य ब्रह्मचारी मुख्तार सा० के लिये यथा शीघ्र परम सुख की प्राप्ति की कामना करता हूँ। सरस्वती-उपासक : श्रुतानुरागी महात्मा * पं० बाबूलाल सिद्धसेन जैन, अहमदाबाद ___ कुछ वर्षों पूर्व जब मैं श्रीमद् राजचन्द्र आश्रम, अगास में था तब परमश्रुत प्रभावक मण्डल की ओर से 'लब्धिसार'-'क्षपणासार' ग्रन्थ की नयी आवृत्ति पं० टोडरमलजी की मूल ढूंढारी भाषा टीका सहित नये सम्पादन में प्रकाशित कराने का निर्णय किया गया। एक-दो हस्तलिखित प्रतियाँ प्राप्त करने और सम्पादन-कार्य के विचार से कई विद्वानों के साथ सम्पर्क स्थापित किया। इसी सन्दर्भ में मैंने (स्व०) परमानन्दजी शास्त्री को भी एक पत्र लिखा । उन्होंने सुझाव दिया कि “इस विषय के विशिष्ट विद्वान् पं० रतनचन्दजी मुख्तार से या श्रीमान् पं० फूलचन्द्रजी सिद्धान्तशास्त्री से यह कार्य सम्पन्न कराना उचित है और इसमें भी यदि मुख्तार सा० इसके लिये तैयार हो जावें तो और भी उत्तम होगा।" इस अभिप्राय से मुझे आपके विशेष सिद्धान्तज्ञान के अनुभव की प्रतीति हुई और श्रुताभ्यास एवं श्रुतोद्धार के कार्य में मुख्तारों की परम्परा पूरा भाग ले रही है। यह विचार कर मन आनन्दित हुआ (प्राचार्य समन्तभद्र के अनन्य भक्त पं० जुगलकिशोरजी भी 'मुख्तार' पद भूषित थे। तत्त्वरसिक श्रीमान् नेमिचन्द्रजी सा० भी 'वकील' हैं ही) मैंने श्रीमान् पं० रतनचन्दजी सा० से अवश्य पत्रव्यवहार किया था, परन्तु इस समय बिलकुल स्मृति में नहीं कि उन्होंने सम्मति रूप से क्या उत्तर दिया था ? इतना भावार्थ लक्ष्य में है कि उत्तर बड़ा सौजन्य और श्रु तभक्तिपूर्ण था। इसी बीच श्रीमान् पं० फूलचन्द्रजी सा० से ग्रन्थ के सम्पादन की स्वीकृति मिल गयी और उसके लिए अपेक्षित सामग्री भी। यथार्थतः वीतरागमार्ग के प्रचार में रस होना और वैसे क्षयोपशमबल की प्राप्ति का होना निश्चय ही सद्गुरुप्रसाद से मिली पूर्वाराधना का फल है । निर्ग्रन्थ मार्ग के परम उद्धारक तो सर्वज्ञवीतराग जिनदेव हैं और परम्परा से गणधर, श्रुतकेवली आचार्य, मुनिजन एवं सन्तपुरुष हैं। उन्हीं की महती कृपा से जिन्हें संसार असार लगा, विषय-रस नीरस लगे, उन्होंने आत्मोपयोग के लिए भोग को योग में बदल दिया। फलस्वरूप उन्हें निर्मल और प्रबल साधनाबल मिलता गया । वे पुरुष स्वपर-हितार्थ सर्वज्ञ-वीतराग की वाणी को अधिकाधिक पीते गये और पिलाते गये, उसमें स्वयं रमते गये और रमाते गये । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012009
Book TitleRatanchand Jain Mukhtar Vyaktitva aur Krutitva Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJawaharlal Shastri, Chetanprakash Patni
PublisherShivsagar Digambar Jain Granthamala Rajasthan
Publication Year1989
Total Pages918
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size20 MB
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