SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 76
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ ३२ ] [ पं० रतनचन्द जैन मुख्तार : संघ का अजमेर, किशनगढ रेनवाल आदि जिस-जिस स्थान पर भी चातुर्मास हुआ, मैं जाता रहा । वहाँ हमें मुख्तार सा० के दर्शन अवश्य होते थे। आप जैन सिद्धान्तों के विशिष्ट ज्ञाता थे। निकट भव्य थे। आपका कहना था कि सदा निर्मोह निरासक्त रहो, अपने कर्तव्य का पालन करो, जिम्मेदारियों को निर्मोह रूप से निभाओ। सन्तान के योग्य बन जाने पर संसार से मन-वचन-काय द्वारा मोह हटा कर आत्मध्यान में तल्लीन रहने का प्रयास करो। यही महावीर का सन्देश है। मैंने भारतवर्षीय सिद्धान्त संरक्षिणी सभा में बहुत समय तक कार्य किया। जहाँ भी अधिवेशन या अन्य कार्यक्रम होता, वहाँ मुख्तार सा० के दर्शन प्रायः हो जाते एवं मेरे हर्ष का पार नहीं रहता। मुख्तार सा० सरल स्वभावी गम्भीर व्यक्ति थे। इन्होंने क्रोध, मान, माया और लोभ रूप कषायों पर विजय प्राप्त करने का भरसक प्रयत्न किया। शास्त्रों को पढ़ना सरल है, रटना सरल है तथा सम्पूर्ण शास्त्रों का ज्ञानी होना भी सम्भव है परन्तु तदनुरूप आचरण करना कठिन है। मुख्तार सा० में ज्ञान और आचरण दोनों का सङ्गम था। उन्होंने शास्त्रों का गहन अध्ययन कर बहुत ही सूक्ष्म बातें हम लोगों के सामने रखीं। अन्य पण्डितों का अध्ययन भले ही होगा, व्याख्यान वाचस्पति भी वे होंगे परन्तु सूक्ष्म रूप से जैनसिद्धान्तों को अन्तःकरण में उतार कर उनका मनन करने वाला हमें एक ही विरला पुरुष नजर आया मुख्तार सा० के रूप में। एक बार वर्षा के दिनों में बाढ़ आई। उनका मकान भी क्षतिग्रस्त हुआ। सुनकर हमें दुःख हुआ। मैंने उनको पत्र भेजा परन्तु उनका जो उत्तर आया वह हम सबके लिए उपादेय है-"भाई ! होनहार प्रबल है, होकर रहेगा। पूर्वोपार्जित कर्मों का ऐसा ही योग था। घर-बार आदि धर्मशाला है, मुसाफिरखाना है। यह देह भी मुसाफिरखाना है। जब शरीर भी अपना नहीं तो मकान अपना कैसे हो सकता है ? अपनी तो आत्मा है। इसे शुद्ध करने का प्रयास करना चाहिए।" हमें इनकी प्रत्येक बात याद आती है। कदम-कदम पर धर्म के मर्म को सूक्ष्मरीति से समझाने में आप सफल रहे। प्रसिद्ध वकील होते हुए भी आपने कभी मायाचार को हृदय में स्थान नहीं दिया। सदा लोभ को पाप का बाप माना, संग्रहवृत्ति को कदापि स्थान नहीं दिया। जैनदर्शन, जैनगजट, जैनसन्देश आदि पत्रों में आपके लेख वर्षों तक आते रहे। । सैद्धान्तिक ज्ञान ( थ्योरेटिकल नॉलेज ) व्यावहारिक ( प्रेक्टीकल ) रूप में परिवर्तित हो तभी कार्य की सिद्धि होती है, इस बात पर आप बहुत जोर देते थे । धर्म ही संसार में सब कुछ है, ऐसा आपका दृढ़ विचार था। श्री रतनचन्द मुख्तार वास्तव में यथा नाम तथा गुण थे। रतनचन्द चिन्तामणि रत्न ही थे । क्योंकि जिस किसी प्राडा का चिन्तन करो उसका उत्तर आपकी आत्मा में यानी आपके पास था)। मुख्तार यानी जैनसिद्धान्त जानने वाले पण्डितों में आप मुख्य थे। यह बहुत कम देखने में आता है कि विद्वान् का भाई भी विद्वान हो परन्तु प्राप महान् पूण्यवान् थे आपके अनुज श्री नेमिचन्दजी भी अधिकारी विद्वान हैं। आप व्रती थे। आपने श्रीमद् रायचन्द्र जैसा निरासक्त, निस्वार्थ जीवनयापन कर आने वाले अपने भवों को सधार लिया। धन्य हैं आपके माता-पिता ! जिन्होंने ऐसे पुत्ररत्न को जन्म देकर संसार के पामर जीवों के लिए ज्ञानरूपी दीपक प्रज्वलित किया। उस अद्वितीय महापुरुष को कोटि-कोटि नमन ! Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012009
Book TitleRatanchand Jain Mukhtar Vyaktitva aur Krutitva Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJawaharlal Shastri, Chetanprakash Patni
PublisherShivsagar Digambar Jain Granthamala Rajasthan
Publication Year1989
Total Pages918
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size20 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy