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________________ व्यक्तित्व और कृतित्व ] [ ६८१ अर्हत्सवीतदोषेष्वाचार्योपाध्यायसाधुषु । धर्म रत्नत्रयेऽनयें जिनवाक्ये च मिषु ॥ २१८ ॥ यतो जायतेरागः स्वभावेनयो गुणोद्भवः । सप्रशस्तो मतः सद्भिदृष्टि ज्ञानावि-धर्मकृत् ॥ २१९ ।। मत्वेति श्रीजिनादीनां भक्तिरागावयोखिलाः । विश्वार्थसाधकाऽनिशं कर्तव्या भक्तिकः पराः॥२२० ।। (मू.प्र. तीसरा अधिकार ) यतोहंदगुणराशीनां स्तवनेन बुधोत्तमैः । लभ्यन्ते तत्समा सर्वेगुणाः स्व-मोक्षदायिनः ॥ २२४ ।। कीर्तनेनाखिला कीर्तिस्त्रैलोक्ये च भ्रमेत्सताम् । इन्द्रचक्रिजिनावीना कीर्तनीयं पदं भवेत् ॥ २२५ ।। सम्पद्यतेऽहंतां भक्त्या सौभाग्यभोगसम्पदः । पूजया त्रिजगल्लोके श्रेष्ठपूज्यपदानि च ॥ २२६ ।। जास्वेति यतयो नित्यं तद्गुणाय जिनेशिनाम् । प्रयत्नेनप्रकुर्वन्तुरागभक्तिः स्तवादिकान् ॥२२९ ।। जिनवरगुणहेतु दोषदुनिशत्रु सकलसुखनिधानं ज्ञानविज्ञानमूलम् । परविमलगुणोघेस्तद्गुणग्रामसिद्ध कुरुत बुधजनानित्यस्तवं तीर्थभाजाम ॥३३०॥ विश्वेषां तीर्थकर्तृणां निर्देश्येमं स्तवं ततः।। हिताय स्वान्ययोर्वक्ष्ये वंदनां मुक्तिमातृकाम् ।। २३१ ॥ ( मू. प्र. अधिकार ३) बीतराग भगवान अरहंतदेव में आचार्य, उपाध्याय, साधुओं में, सर्वोत्कृष्ट रत्नत्रयरूप धर्म में और जिनवचनों में, उन गुणों के कारण, उत्पन्न हुआ जो स्वाभाविक अनुराग, वह प्रशस्त अनुराग सम्यग्दर्शन-ज्ञान-चारित्ररूप धर्म को उत्पन्न करने वाला है। यही समझकर भक्त पुरुषों को समस्त अर्थों को सिद्ध करने वाली भगवान जिनेन्द्रदेव की भक्ति और गुणों में उत्कृष्ट अनुराग सदा करते रहना चाहिये । भगवान अरहंतदेव के गुणों के समूह की स्तुति करने से उत्तम बुद्धिमान पुरुषों को उनके समान ही स्वर्ग मोक्ष को देने वाले समस्त गुण प्राप्त हो जाते हैं। भगवान जिनेन्द्रदेव के गुरण कीर्तन करने से सज्जनों की समस्त शुभकीति तीनों लोकों में भर जाती है तथा इन्द्र, चक्रवर्ती और तीर्थंकर के प्रशंसनीय पद प्राप्त हो जाते हैं। भगवान अरहंतदेव की पूजा करने से तीनों लोकों में श्रेष्ठ और पूज्यपद प्राप्त होते हैं। यही समझकर मुनियों को भगवान अरहंतदेव के गुण प्राप्त करने के लिये बड़े प्रयत्न के साथ भगवान अरहन्तदेव के गुणों में अनुराग, भक्ति और स्तुति आदि करनी चाहिए। भगवान तीर्थकरदेव का स्तवन उनके गुणों की प्राप्ति का कारण है। समस्त दोष और अशुभ ध्यानों को नाश करने वाला है. समस्त गुणों का निधान है और ज्ञान विज्ञान का मूलकारण है। इसलिये बुद्धिमान पुरुषों को तीर्थंकरों के समस्त श्रेष्ठ गुणों को सिद्ध करने के लिये उनके निर्मलगुणों का वर्णन कर उनकी स्तुति सदा करते रहना चाहिए। इस प्रकार समस्त तीथंकरों की स्तुति का स्वरूप कहा अब आगे अपना और दूसरों का कल्याण करने के लिए मोक्ष की जननी ऐसी वंदना का स्वरूप कथन किया जायगा। कालत्रयेऽपि य पूजां करोति जिननायके । तीर्थनाथस्य भूति स भुक्त्वा मुक्त्यङ्गनां व्रजेत् ॥१५॥ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012009
Book TitleRatanchand Jain Mukhtar Vyaktitva aur Krutitva Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJawaharlal Shastri, Chetanprakash Patni
PublisherShivsagar Digambar Jain Granthamala Rajasthan
Publication Year1989
Total Pages918
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size20 MB
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