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________________ ६८० ] [ पं० रतनचन्द जैन मुख्तार । समाधान -- श्री शिवकोटि आचार्य ने भगवती आराधना में और श्री श्र तसागरजी आचार्य ने भावपाहुड की टीका में भक्ति का स्वरूप निम्न प्रकार कहा है 'अदादिगुणानुरागो भक्तिः ।' अर्थात्-त आदि के गुणों में अनुराग भक्ति है। महंत, सिद्ध, प्राचार्य, उपाध्याय, निग्रंथ गुरु के मुख्यगुण वीतरागता तथा रत्नत्रय हैं। जिनको वीतरागता इष्ट है, वे ही अहंत और निग्रंथ गुरु की भक्ति करते हैं। जिनको सरागता इष्ट है वे सग्रन्थ गुरु की भक्ति करते हैं। श्री कुन्दकुन्दाचार्य ने भक्ति का फल निम्नप्रकार कहा है अरहंत णमोक्कारं भावेण य जो करेदि पयवमदी । सो सवदुक्खमोवखं पावदि अचिरेण कालेन ॥ ६ ॥ सिद्धाण णमोक्कारं भावेण य जो करेदि पयदमदी । सो सम्वक्खमोक्खं पावदि अचिरेण कालेण ॥ ९ ॥ आइरियणमोक्कारं भावेण य जो करेदि पयदमदी । सो सव्वदुक्खमोक्खं पावदि अचिरेण कालेन ॥ १२ ॥ उवज्झायणमोक्कारं भावेण य जो करेदि पदमदी । सो सम्वदुक्खमोक्खं पावइ अचिरेण कालेन ॥ १४ ॥ साहूण णमोक्कारं भावेण य जो करेदि पयदमदी । सो सवदुक्खमोक्खं पावइ अचिरेण कालेन ॥ १६ ॥ एवं गुणजुत्ताणं पंच गुरुणं विकरहि । जो कुणदि णमोक्कारं सो पावदि जिम्बुदि सिग्धं |१७| भतीए जिणवराणं खोयदि जं पुण्वसंचियं कम्मं । आयरिसाएणय बिज्जा मंता य सिज्यंति ॥ १८ ॥ जम्हा विशेदि कम्मं अटुविहं चाउरंगमोक्खो य । तम्हा वदंति विदुसो विणओत्ति बिलोणसंसारा ॥१९॥ तम्हा सव्वपयत्तो विणएतं मा कदाइ छंडेज्जो । अष्पसुदो वि य पुरिसो खवेदि कम्माणि विणएण 1१०८ | इस प्रकार इन गाथाओं द्वारा श्री कुन्दकुन्द आचार्य ने नमस्कार, भक्ति और विनय का फल अष्टकम का नाश तथा मोक्ष प्राप्ति बतलाया इसीलिये साधु के २८ मूल गुणों में स्तवन व वन्दना ये दो मूलगुण बतलाये गये हैं तथा पूजा श्रावक का मुख्य धर्मं बतलाया गया । पूजा के बिना मनुष्य श्रावक नहीं हो सकता । श्री कुन्दकुन्द आचार्य ने कहा भी है Jain Education International "दाणं पूजा मुक्खं सावयधम्मेण सावया तेण विणा" "पूया फलेण तिलोके सुरपुज्जो हबई सुद्धमणो" सुपात्र में चार प्रकार का दान देना और देव, शास्त्र, गुरु की पूजा करना श्रावक का मुख्य धर्म है । दान पूजा के बिना श्रावक नहीं हो सकता । जो श्रावक शुद्ध मन से पूजा करता है वह पूजा के फल से त्रिलोक का अधीश व देवताओं के इन्द्र से पूज्य हो जाता है। श्री सकलकीर्ति आचार्यं कहते हैं For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012009
Book TitleRatanchand Jain Mukhtar Vyaktitva aur Krutitva Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJawaharlal Shastri, Chetanprakash Patni
PublisherShivsagar Digambar Jain Granthamala Rajasthan
Publication Year1989
Total Pages918
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size20 MB
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