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________________ ६८२] [पं. रतनचन्द जैन मुस्तार । स्वर्गधीगृहसारसौख्यजनिकां श्वभ्रालयेष्वर्गला। पापारिक्षयकारिकां सुविमलां मुक्त्यङ्गनादूतिकाम् ॥ श्री तीर्थेश्वर सौख्यदान कुशला श्रीधर्मसंपाविका। भ्रातस्त्वं कुरु वीतरागचरणे पूजां गुणोत्पादिकाम् ।१५७। (सुभाषितावली) इन श्लोकों में भी श्री सकलकीर्ति आचार्य ने कहा है-जो जिनेन्द्र भगवान की तीनों कालों में पूजा करता है वह तीर्थंकर की विभूति का उपयोग कर मुक्ति को प्राप्त करता है। जिनपूजा स्वर्ग सुखों को उत्पन्न करने वाली है, नरक रूप घर की अर्गला है, पापों का नाश करने वाली है, मुक्ति को दूती है, तीर्थकर के सुख देने वाली है, श्री धर्म को उत्पन्न करने वाली है, इसलिये हे भाई ! तू निरन्तर जिनेन्द्र भगवान की पूजा कर।। श्री वीरसेन आचार्य ने भी कहा है-"जिणपूजाबंदणणमेसणेहि य बहुकम्मपदेसणिज्जस्वलंभादो।" जिनपजा. वंदना और नमस्कार से भी बहुत कर्मों की निर्जरा होती है। "जिबिबसणेण णिधत्त-णिकाचिवस्स वि मताहिकामकलावस्स खयवंसणादो।" अर्थात जिनविम्ब के दर्शन से निघत्त और निकाचित रूप भी मिथ्यात्वादि कर्मकलाप का क्षय देखा जाता है, इसलिये जिनविम्ब दर्शन प्रथमोपशमसम्यक्त्व की उत्पत्ति का कारण होता है। प्रपश्यन्ति जिनं भक्त्या पूजयन्ति स्तुवन्ति ये। ते च दृश्याश्च पूज्याश्च स्तुत्याश्च भुवनत्रये ॥१४॥ ( पन. पंचवि. अ. ६) जो भक्ति से जिन भगवान का दर्शन, पूजन और स्तुति करता है, वह तीनों लोक में स्वयं दर्शन, पूजन पौर स्तुति के योग्य बन जाता है अर्थात् स्वयं भी परमात्मा बन जाता है। श्री पद्मनन्दि आचार्य ने और भी कहा है विटु तुमम्मि जिणवर, दिठिहरा सेस मोहतिमिरेण । तह पढें जइदिळं जहट्ठियं, तं मए तच्चं ॥१४॥२॥ दिठे तुमम्मि जिणवर मण्णे, तं अपणो सुकयलाहं । होइ सो जेणासरि ससुहणिही, अक्खओ मोक्खो ॥६॥ दिठे तुमम्मि जिणवर, चम्ममएणच्छिणा वितं पुण्णं । जं जणइ पुरो केवलदसण, गाणाई गयणाई॥१४॥१६॥ दिष्ठे तुमम्मि जिणवर, सुकयस्थो मुणिमोण जेणप्पा। सो बहुयवुदुम्वुडणाई भवसायरे काही ॥ १७ ॥ विढे तुमम्मि जिणवर, कल्लाणपरंपरा पुरो पुरिसे । संचरइ अणाहुया वि, ससहरे किरणमालव ॥१४॥२४॥ (प.पं.) जिनवर के दर्शनों के फल का कथन करते हुए प्राचार्य कहते हैं हे जिनेन्द्र ! आपका दर्शन होने पर दर्शन में बाधा पहुंचाने वाला मोह ( मिथ्यात्व ) रूप अन्धकार इसप्रकार नष्ट हो जाता है जिससे यथावस्थित तत्त्व दिख जाता है, अर्थात् सम्यग्दर्शन प्राप्त हो जाता है। आपका दर्शन होने पर उस पुण्य का लाभ होता है जो अविनश्वर मोक्ष सुख का कारण है । हे जिनेन्द्र ! चर्ममय नेत्र से भी आपका दर्शन होने पर वह पुण्य प्राप्त होता है जो कि भविष्य में केवलदर्शन और केवलज्ञानरूप नेत्रों को Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012009
Book TitleRatanchand Jain Mukhtar Vyaktitva aur Krutitva Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJawaharlal Shastri, Chetanprakash Patni
PublisherShivsagar Digambar Jain Granthamala Rajasthan
Publication Year1989
Total Pages918
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size20 MB
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