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________________ व्यक्तित्व और कृतित्व ] [ ६७६ शुभभाव है उसमें धर्म नहीं है किन्तु पुण्य है।" ( २२ मार्च १९५६ के जैनगजट में प्रकाशित कानजी भाई का उपदेश )। समाधान-धर्म दो प्रकार है-एक मुनिधर्म, दूसरा श्रावकधर्म । श्रीमद्भगवत्कुन्दकुन्दाचार्य ने श्री रयणसार के प्रथम प्रलोक में कहा है----'श्री परमात्मा वर्धमान जिनेन्द्रदेव को मनवचनकाय की शुद्धि से नमस्कार कर गृहस्थ और मुनि के धर्म का व्याख्यान करनेवाला रयणसार नामक ग्रन्थ कहता है। इस ही रयणसार ग्रन्थ के श्लोक ११ में कहा है-'दान व पूजा श्रावक धर्म में मुख्य है। दान पूजा के बिना श्रावक नहीं होता।' इस मागम प्रमाण से सिद्ध है कि जो दान व पूजा नहीं करता वह श्रावक ही नहीं है। जिनेन्द्रदेव की भक्ति को मात्र बंध का कारण मानना दि० जैन आगम अनुसार नहीं है। जिनेन्द्र देव की पूजा और भक्ति से बंध की अपेक्षा असंख्यात गुणी निर्जरा होती है । जैसा कि श्री कषायपाहुड जयधवल महान सिद्धान्त ग्रंथ पुस्तक १, पृ० ९ में कहा भी है 'अरहंत णमोक्कारो संपहिय बंधादो असंखेज्जगुणकामक्खयकारओ त्ति तत्थ वि मुणीणं पत्तिप्पसंगादो।' अर्थ-अरहंत का नमस्कार तत्कालीन बंध की अपेक्षा असंख्यातगणी कर्म-निर्जरा का कारण है इसलिये उसमें मुनियों की प्रवृत्ति प्राप्त होती है। इसी के समर्थन में श्री कुन्दकुन्द आचार्य की गाथा है जिसका अर्थ इस प्रकार है-'जो विवेकी जीव भावपूर्वक अरहंत को नमस्कार करता है वह अतिशीघ्र समस्त दुःखों से मुक्त हो जाता है। (मलाचार ७५) । असंख्यातगुणो निर्जरा मोक्षमार्ग है. संसार मार्ग नहीं है। अतः जिनपुजा व मनिदान आदि मोक्षमार्ग में सहायक हैं। श्री पद्मनन्दिपंचविशतिका के श्रावकाचार के श्लोक १४ में कहा है-'जो जीव जिनेन्द्र भगवान को भक्तिपूर्वक देखते हैं, पूजा स्तुति करते हैं वे भव्य जीव तीनों लोक में दर्शनीय तथा पूजा व स्तुति के योग्य होते हैं। ___ सच्चे-देव, गुरु, शास्त्र की श्रद्धा मिथ्यादर्शन कदापि नहीं हो सकती। सच्चे देव गुरु शास्त्र की श्रद्धा को में सम्यग्दर्शन कहा है-'आप्त, प्रागम और तत्त्व इन तीनों के श्रद्धान से सम्यग्दर्शन होता है।' (नियमसार गाथा ५)। श्री षट्खंडागम धवल सिद्धान्त ग्रन्थ में भी कहा है 'आप्तागमपदार्थस्तत्त्वार्थस्तेषु, श्रद्धानमनुरक्तता सम्यग्दर्शन मिति लक्ष्यनिर्देशः।' अर्थ-आप्त, आगम और पदार्थ को तत्त्वार्थ कहते हैं । और उनके विषय में श्रद्धान अर्थात् अनुरक्ति करने को सम्यग्दर्शन कहते हैं । यहाँ पर सम्यग्दर्शन लक्ष्य है । तथा आप्त, आगम और पदार्थ का श्रद्धान लक्षण है । ( षट्खंडागम पुस्तक १, पृष्ठ १५१)। उपर्युक्त आगमप्रमाण से यह सिद्ध हो गया कि सच्चे-देव, शास्त्र, गुरु की श्रद्धा अर्थात् अनुरक्ति सम्यग्दर्शन है। ऐसे देव, शास्त्र, गुरु की पूजा, भक्ति व मुनिदान मिथ्यात्व कैसे हो सकता है ? प्रत्युत जो मनुष्य सुपात्र में दान नहीं देता और अष्टमूलगुण, व्रत, संयम, पूजा आदि अपने धर्म का पालन नहीं करता वह बहिरात्मा (मिथ्याइष्टि ) है। रयणसार गाथा १२ । -जें. सं. 16-10-58/VI/ इन्दरचंद छाबड़ा, लश्कर (१) सकल प्रमत्त जीव प्रभु-भक्ति से अपूर्व प्रानन्द का अनुभव करते हैं (२) लौकिकवैभवासक्त सकल जोव प्रभु भक्ति में जलन ( दुःख ) का अनुभव करते हैं शंका-क्या छठे गुणस्थान तक के सम्यग्ज्ञानी जन प्रभु भक्ति में भट्टी से भयंकर दुःख की जलन का अनुभव करते हैं ? प्रभु-भक्ति के विकल्प-काल में क्या सुख का अनुभव नहीं करते ? Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012009
Book TitleRatanchand Jain Mukhtar Vyaktitva aur Krutitva Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJawaharlal Shastri, Chetanprakash Patni
PublisherShivsagar Digambar Jain Granthamala Rajasthan
Publication Year1989
Total Pages918
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size20 MB
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