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________________ ६७८ ] [पं० रतनचन्द जैन मुख्तार ! लगाया हो अभिप्राय । मगर हम जो गये हमारा भीतर का तात्पर्य यही था कि हे भगवान ! ये मिल जाय यहां तो बड़ा भारी उपकार जैनधर्म का होय ! अरे ! शिखरजी से निर्मल क्षेत्र और कोन है कि जहां पर नहीं होने की थी बात । हम क्या करें बताओ? बात ही नहीं होती थी। हमारी वश की बात तो नहीं थी। अच्छा और भिड़ानेवाले उनके अन्दर ऐसे होते ही हैं-हर कहीं ही ऐसे होते हैं जैसे-मन्त्री तो शनि भये और राजा होय वृहस्पति । और मन्त्री ही तो शनि बैठे, राजा वृहस्पति होने से क्या तत्त्व होय । वो तो अच्छी ही कहे मगर तोड़ने मरोड़ने वालो तो वो बैठो है बीच में मन्त्री बैठा है. सो बताइये कि कैसे बने ? हम तो यह कहें कि सम्यक्त्व में जो आठ अंग बताये हैं जिसमें 'दर्शनाच्चरणाद्वापि' । दर्शन यानि श्रद्धा से च्यूत हो जाय, कदाचित् चारित्र से च्युत हो जाय । दर्शनाच्चरणाद्वापि चलतां धर्मवत्सलः। फिर उसी में स्थापित करना उसीका नाम स्थितिकरण है और वात्सल्य जो है। स्वयूथ्यान् प्रति सद्भाव सनाथाऽपतकतवा । प्रतिपत्तियथायोग्य, वात्सल्यमभिलप्यते ।। अपनी ओर से जो कोई हो, अपने में मिलावो तत्त्व तो यह है भैया । और यह सम्यकदृष्टि बने हो तो आठ अंग नहीं पालोगे । पाठ अग तो तुम्हारे पेट में पड़े हैं। क्योंकि वृक्ष चले और शाखा नहीं चले सो बात नहीं हो सकती। अगर सम्यकदृष्टि बने हो तो आठ अंग होना चाहिये। यहाँ जोर दिया समंतभद्र स्वामी नेनाङ्गहीनमलंछेत्त ...... .... । ____ जन्मसन्तति को अङ्ग हीन सम्यकदर्शन छेदन नहीं कर सकता। यह सांगोपांग होना चाहिये । कोई योंही में टल जाय तो नीचे लिख दिया है कि एक-एक अंग के जो उदाहरण दिये वो तो हम लोगों को लिख दिये। और जो पक्के ज्ञानी हैं उनके तो आठ ही अंग होना चाहिये। इस वास्ते हम तो कहते हैं कि स्थितीकरण सबसे बढिया है और आप लोग सब जानते हैं, हम क्या कहें? एक बात हो जाती तो सब हो जाता । "निमित्त कारण को निमित्त मान लेते तो सब शांति हो जाय ।" -नं. सं. 11-7-57/ ....... | रतनवन्द मुख्तार सच्चे देव गुरु शास्त्र की भक्ति कदापि मिथ्यात्व नहीं हो सकती शंका आचार्यों ने धर्म के दो भेद बतलाये हैं (१) मुनि धर्म, (२) गृहस्थ धर्म, गृहस्य धर्म में देवपूजा और मुनिदान को सबसे अधिक मुख्यता है। परन्तु कानजी भाई सच्चे देव, सच्चे शास्त्र और सच्चे गुरु की पूजा भक्ति और उनकी श्रद्धा करने को भी मिथ्यात्व बतलाते हैं और देवपूजा, मुनिदान तथा तीर्थयात्रा को संसार का कारण बतलाते हैं। यदि देव, शास्त्र. गुरु की पूजा करना, श्रद्धा करना मिथ्यात्व है तो फिर भगवान जिनेन्द्र देव के द्वारा कहा हुमा गृहस्थधर्म क्या रह जाता है ? नोट-हिन्दी आत्मधर्म वर्ष ४ पृ० २७ पर इस प्रकार लिखा है-'यद्यपि सच्चे देव-गुरु-शास्त्र के लक्ष से ज्ञान का क्षयोपशम बढ़ता है, किन्तु वह सम्यग्ज्ञान नहीं है । देव गुरु-शास्त्र परद्रव्य हैं, उनके लक्ष से कषाय के मन्द करने पर ज्ञान का जो क्षयोपशम होता है वह ज्ञान प्रात्मा के सम्यग्ज्ञान का कारण नहीं होता। जब उस पर छोड़कर ज्ञान को स्वाभिमुख किया जाता है, तब ही सम्यग्ज्ञान होता है। अर्थात् सम्यग्ज्ञान स्वाभिमुखता पूर्वक होता है, और उसके पश्चात् भी स्वाभिमुखता के द्वारा सम्यग्ज्ञान का विशेष विकास होता है। रा सम्यग्ज्ञान का विकास नहीं होता । "भगवान की भक्ति में कषाय की मंदता का भाव वह Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012009
Book TitleRatanchand Jain Mukhtar Vyaktitva aur Krutitva Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJawaharlal Shastri, Chetanprakash Patni
PublisherShivsagar Digambar Jain Granthamala Rajasthan
Publication Year1989
Total Pages918
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size20 MB
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