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________________ व्यक्तित्व और कृतित्व ] [ ६६५ श्री वीरसेन आचार्य के इस समाधान से शंकाकार की शंका का भी समाधान हो जाता है। - ग.7-11-68/XIV/रो. ला.जैन पूजा-भक्ति प्रादि कार्यों से प्रविपाक निर्जरा होती है शंका-पूजा, स्वाध्याय, भक्ति आदि कार्यों से गृहस्थी के अविपाक निर्जरा होती है या नहीं ? समाधान-जिनेन्द्र भक्ति पूजा तथा आर्ष ग्रन्थ के स्वाध्याय से अविपाक निर्जरा तो होती ही है, किन्तु मोक्ष भी होता है। श्री समन्तभद्र आचार्य कहते हैं जन्मारण्यशिखी स्तवः स्मृतिरपि क्लेशाम्बुधेनौः पदे, भक्तानां परमौ निधी प्रतिकृतिः सर्वार्थसिद्धिः परा। बन्दीभूतवतोपि नोन्नतिहतिर्नन्तश्च येषां मुबा, दातारो जयिनो भवन्तु वरदा देवेश्वरास्ते सदा ॥११५॥ स्तुति विद्या अर्थ-जिनका स्तवन संसार रूप अटवी को नष्ट करने के लिये अग्नि के समान है, जिनका स्मरण दुःखरूप समुद्र से पार होने के लिये नौका के समान है, जिनके चरण भक्त पुरुषों के लिये उत्कृष्ट निधानखजाने के समान है, जिनकी श्रेष्ठ प्रतिकृति-प्रतिमा सर्व कार्यों की सिद्धि करने वाली है, और जिन्हें हर्ष पूर्वक प्रणाम करने वाले एवं जिनका मंगल गान करने वाले नग्नाचार्य रूप से ( पक्ष में स्तुतिपाठक-चरण-रूप से ) रहते हुए भी मुझ समन्तभद्र की उन्नति में कुछ बाधा नहीं होती, वे देवों के देव जिनेन्द्र भगवान दान शील कर्म शत्रुओं पर विजय पाने वाले और सबके मनोरथों को पूर्ण करने वाले हों। चारित्रं यदमाणि केवलदृशादेव त्वया मुक्तये, पुसा तत्खलु मादृशेन विषमे काले कलो दुर्धरम् । भक्तिर्या समभूदिह त्वयि दृढा पुण्यः पुरोपजितः, संसारार्णवतारणे जिन ततः सेवास्तु पातो मम ॥५४४॥ पद्मनन्दि पंचविंशति अर्थ-हे जिन देव ! केवलज्ञानी आपने जो मुक्ति के लिये चारित्र बतलाया है। उसे निश्चय से मुझ जैसा पुरुष इस विषम पंचम काल में धारण नहीं कर सकता। इसलिये पूर्वोपार्जित महान् पुण्य से यहाँ जो मेरी आपके विषय में डढ़ भक्ति हुई है, वह भक्ति ही मुझे इस संसार रूपी समुद्र से पार होने के लिये जहाज के समान होवे। श्री कुन्दकुन्द आचार्य भी कहते हैं जिणवरचरणबुरूह, गमंति जे परम-मत्तिरायण । ते जम्मवेल्लिमूलं, खणंति वरभावसत्थेण ॥ १५३ ।। भावपाहुड अर्थ-जे पुरुष परम भक्ति अनुराग करि जिनवर के चरण कमल कू नमै है, ते पुरुष श्रेष्ठ भावरूप शस्त्र करि जन्म ( संसार ) रूपी वेल का मूल जो मिथ्यात्व आदि कर्म ताहि खणे है । "जिविव-वंसपेण णिवत्तणिकाचिवस्स वि मिच्छत्तादिकम्मकलावस्स खयदसणादो।" ध. पु. ६ पृ. ४२७ अर्थ-जिन बिम्ब के दर्शन से निधत्त और निकाचित रूप भी मिथ्यात्वादि कर्म कलाप का क्षय देखा जाता है। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012009
Book TitleRatanchand Jain Mukhtar Vyaktitva aur Krutitva Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJawaharlal Shastri, Chetanprakash Patni
PublisherShivsagar Digambar Jain Granthamala Rajasthan
Publication Year1989
Total Pages918
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size20 MB
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