SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 708
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ [पं० रतनचन्द जैन मुख्तार : पूज्य देवों की अपेक्षा सब देवगति के देव कुदेव (अपूज्य देव ) हैं शंका-अरहंत देव ही सच्चे देव हैं और अन्य सब कुदेव हैं । इससे चतुनिकाय के देव भी कुदेव सिद्ध हो जाते हैं। अनुत्तर विमानों के देव जो नियम से सम्यग्दृष्टि होते हैं, कुदेव कैसे हो सकते हैं ? समाधान-पूज्यता की अपेक्षा श्री अरहंत भगवान को सुदेव और रागी द्वषी को कुदेव कहा गया है। चतनिकाय के देवों के देवायु आदि का उदय होने से उन को देव कहा गया है। पूज्यता की अपेक्षा से उनको देव नहीं कहा गया है। ___ "देवगतिनामकर्मोदये सत्यभ्यन्तरे हेतौ बाह्यविभूतिविशेषः द्वीपादिसमुद्रादिप्रदेशेषु यथेष्टं दोव्यन्ति क्रीड. न्तीति देवाः।" सर्वार्थसिद्धिः अभ्यन्तर कारण देवगति नाम कर्म के उदय होने पर जो नाना प्रकार की बाह्य विभूति से द्वीप-समुद्रादि अनेक स्थानों में इच्छानुसार क्रीड़ा करते हैं, वे देव कहलाते हैं । -जं. ग. 7-1-71/VII/ रो. ला. जन सिद्धों से पूर्व अरहंत को नमस्कार करने का हेतु शंका-सिद्ध भगवान अष्ट कर्म से रहित हैं और अरिहंत भगवान ने चार कर्मों का नाश किया है। किन्तु चार कर्मों से बंधे हुए हैं । फिर अरिहंत भगवान को प्रथम नमस्कार क्यों किया जाता है, सिद्ध परमेष्ठी को प्रथम नमस्कार करना चाहिये था ? समाधान-इसी प्रकार की शंका धवल पु. १ में भी उठाई गई और श्री वीरसेन आचार्य ने उसका उत्तर इसप्रकार दिया है "विगताशेषलेपेषु सिद्धषु सत्स्वहतां सलेपानामादौ किमिति नमस्कारः क्रियत इति चेन्नैष दोषः, गुणाधिक. सिद्धषु श्रद्धाधिक्यनिबन्धनत्वात् । असत्यहत्याप्तागमपदार्थावगमो न भवेदस्मदादीनाम्, संजातश्चतत्प्रसावादित्युपकारापेक्षया वादावहन्नमस्कारः क्रियते । न पक्षपातो दोषाय शुभपक्षवृत्तेः श्रेयोहेतुत्वात् । अद्वेतप्रधाने गुणीभूतते निबन्धनस्य पक्षपातस्थानुपपत्तेश्च । आप्तश्रद्धाया आत्तागमपदार्थविषयवहाधिक्यनिबन्धनत्वख्यापनार्थ वाहतामादौ नमस्कारः।" धवल पु. १.५३ अर्थ-सर्व प्रकार के कर्मलेप से रहित सिद्ध परमेष्ठी के विद्यमान रहते हुए चार अघातिया कर्मों के लेप से युक्त अरिहंत को आदि में नमस्कार क्यों किया जाता है ? यह कोई दोष नहीं है, क्योंकि सबसे अधिक गुणवाने सिद्धों में श्रद्धा की अधिकता के कारण अरिहंत परमेष्ठी ही हैं, अर्थात अरिहंत परमेष्ठी के निमित्त से ही अधिक गणवाले सिद्धों में सबसे अधिक श्रद्धा उत्पन्न होती है। यदि अरिहत परमेष्ठी न होते तो हम लोगों को आप्त, पागम और पदार्थ का परिज्ञान नहीं हो सकता था। किन्तु अरिहंत परमेष्ठी के प्रसाद से हमें इस बोध की प्राप्ति हुई है। इसलिये उपकार की अपेक्षा भी आदि में अरिहतों को नमस्कार किया जाता है। यदि कोई यह कहे कि इस प्रकार आदि में अरिहंतों को नमस्कार करना तो पक्षपात है ? इस पर प्राचार्य उत्तर देते हैं कि ऐसा पक्षपात दोषोत्पादक नहीं है। किन्तु शुभ पक्ष में रहने से वह कल्याण का ही कारण है। तथा द्वंत को गौण करके अद्वैत की प्रधानता से किये गये नमस्कार में द्वतमूलक पक्षपात बन भी तो नहीं सकता । आप्त की श्रद्धा से ही आप्त, आगम और पदार्थों के विषय में दृढ़ श्रद्धा उत्पन्न होती है, इस बात को प्रसिद्ध करने के लिए भी आदि में अरिहंत को नमस्कार किया गया है। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012009
Book TitleRatanchand Jain Mukhtar Vyaktitva aur Krutitva Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJawaharlal Shastri, Chetanprakash Patni
PublisherShivsagar Digambar Jain Granthamala Rajasthan
Publication Year1989
Total Pages918
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size20 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy