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________________ [ पं० रतनचन्द जैन मुख्तार। एकापि समर्थे यं, जिनभक्तिद्गति निवारयितुम् । पुण्यानि च पूरयितु, दातुं मुक्तिश्रियं कृतिनः ॥१५॥ उपासकाध्ययन कल्प ६ पृ. ४८ अर्थ-अकेली एक जिन भक्ति ही भाग्यवान के दुर्गति का निवारण करने में, पुण्य का संचय करने में और मुक्ति रूपी लक्ष्मी को देने में समर्थ है। सर्वागमावगमतः खलु तत्त्वबोधो, मोक्षाय वृत्तमपि संप्रति दुर्घटनः । जाड्यात्तथा कुतनुतस्त्वयि भक्तिः देवसैवास्ति सैव भवतु क्रमतस्तदर्थम् ॥८७१॥ पन. पं. २१/६ अर्थ-हे देव ! मुक्ति का कारणीभूत जो तत्त्वज्ञान है, वह निश्चयतः समस्त आगम के जान लेने पर प्राप्त होता है, सो वह जड़बुद्धि होने से हमारे लिये दुर्लभ ही है। इसी प्रकार उस मोक्ष का कारणीभूत जो चारित्र है, वह भी शरीर की दुर्बलता से इस समय हमें नहीं प्राप्त हो सकता है। इस कारण प्रापके विषय में जो मेरी भक्ति है वही क्रम से मुझ को मुक्ति का कारण होवे । दिट्ठ तुमम्मि जिणवर, विट्ठिहरासेसमोहतिमिरेण । तह ण? जइ दिट्ठ', जहद्वियं तं मए तच्च ॥ ७४३ ॥ पा. पं. १४/२ अर्थ-हे जिनेन्द्र ! आपका दर्शन होने पर दर्शन में बाधा पहुंचाने वाला समस्त मोहरूप अन्धकार इस प्रकार नष्ट हो गया कि जिससे मैंने यथावस्थित तत्त्व को देख लिया है अर्थात् सम्यग्दर्शन प्राप्त कर लिया है। विट्ठ तुमम्मि जिणवर, चम्ममएणच्छिणा वि तं पुण्णं । जं जणइ पुरो केवलदसण णाणाई णयणाई ॥७५७ ॥ पन. ५०, १४/१६ अर्थ हे जिनेन्द्र ! चर्ममय नेत्र से भी आपका दर्शन होने पर वह पुण्य प्राप्त होता है, जो कि भविष्य में केवलदर्शन और केवलज्ञानरूप नेत्र को उत्पन्न करता है। 'अरहंतणमोकारो संपहियबंधादो असंखेज्जगुणकम्मक्खयकारओ ति।' जयधवल पु० १ पृ० ९ अर्थ-अरहंत नमस्कार तत्कालीन बन्ध की अपेक्षा असंख्यात गुणी कम निर्जरा का कारण है। श्री कुन्दकुन्द आचार्य पूजा का फल अरहंत-पद बतलाते हैं'पूया फलेण तिलोके सुरपुज्जो हवेइ सुद्धमणो।' अर्थ-शुद्ध मन वाले को पूजा का फल तीन लोक में सुरों से पूजित अरहंत पद मिलता है । "जिण-पूजा-वंदणा-णमंसणेहि य बहुकम्मपदेसणिज्जरुवलंभावो।' धवल पु. १० पृ० २८९ अर्थ-जिन-पूजा, वन्दना और नमस्कार से भी बहुत कर्मप्रदेशों की निर्जरा पाई जाती है। अरहंतणमोक्कार, भावेण य जो करेदि पयडमदि। सो सम्वदुक्खमोक्खं,पावइ अचिरेण कालेण ॥६७ ॥ मुलाचार जो जीव भावपूर्वक अरहंत को नमस्कार करता है वह अति शीघ्र सब दुःखों से मुक्त हो जाता है। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012009
Book TitleRatanchand Jain Mukhtar Vyaktitva aur Krutitva Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJawaharlal Shastri, Chetanprakash Patni
PublisherShivsagar Digambar Jain Granthamala Rajasthan
Publication Year1989
Total Pages918
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size20 MB
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