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________________ ६६२ ] [ पं० रतनचन्द जंन मुख्तार : स्तुति करनी अन्य तीर्थकर की स्तुति पूजा नाहीं करनी अर अन्य तीर्थकर की पूजा करनी होय तो स्थापना तन्दुला. दिकतें करके अन्य का पूजन स्तवन करना ऐसा पक्ष करै हैं । "तिनक इस प्रकार तो विचार किया चाहिये जे समन्तभद्र स्वामी शिवकोटिराजा के प्रत्यक्ष देखते स्वयम्भू स्तवन कियो तदि चन्द्रप्रभु स्वामी की प्रतिमा प्रगट भई तब चन्द्रप्रभ के सन्मुख अन्य षोडश तीर्थ करनि का स्तवन कैसे किया? बहुरि एक प्रतिमा के निकट एक ही का स्तवन पढ़ना योग्य होय तो स्वयम्भूस्तोत्र का पढ़ना ही नाही सम्भवै । आदि जिनेन्द्र की प्रतिमा विना भक्तामरस्तोत्र पढ़ना नाहीं बनेगा, पार्श्वजिन की प्रतिमा बिना कल्याणमन्दिर पढ़ना नाहीं बनेगा, पंचपरमेष्ठी की प्रतिमा बिना वा स्थापना बिना पंच नमस्कार कैसे पढया जायगा, कायोत्सर्ग जाप्यादिक नहीं बनेगा व पंच परमेष्ठी की प्रतिमा बिना नाम लेना, जाप्य करना, सामायिक करना नाही सम्भवेगा तथा अन्यदेश में मन्दिर में प्रतिमा का निश्चय बिना स्तुति पढ़ना नाहीं सम्भवेगा तथा रात्रि का अवसर होय, छोटी अवगाहना की प्रतिमा होय तहाँ पहले चिह्न का निश्चय कर, पाछै स्तवन में प्रवा जायगा तथा जिस मन्दिर में अनेक प्रतिमा होय तदि जाको स्तवन कर तिसके सम्मुख दृष्टि समस्या हस्त जोड़ विनती करना सम्भवै अन्य प्रतिमा के सम्मुख नाहीं संभवे, बहरि जिस मन्दिर में अनेक प्रतिबिम्ब होय तहाँ जो एक का स्तवन वन्दना किया तद दुजे का निरादर भया । .. "बहुरि जो स्थापना के पक्षपाती स्थापना बिना प्रतिमा का पूजन नाहीं कर तो स्तवन, वन्दना करने की योग्यता हू प्रतिमा के नाहीं रही। बहुरि जो पीत तन्दुलनि की प्रतदाकार स्थापना ही पूज्य है तो तिन पक्षपातीनि के धातु-पाषाण का तदाकार प्रतिबिम्ब स्थापना करना निरर्थक है। एक प्रतिमा के आगे एक का पूजन होय तो अन्य तेईस तीर्थकर की पूजन करे सो पीत अक्षतनि की स्थापना करके करे, तदि तेईस प्रतिमा का संकल्प पीत अक्षतनि में भया, तदि जयमाल पूजन-स्तवन में अपनी दृष्टि पीत अक्षतनि में ही रखनी। ऐसे एकान्ती आगमज्ञान रहित स्थापना के पक्षपाती हैं, तिनके कहने का ठिकाना नाहीं किन्तु ऐसा जानना कि एक तीर्थंकर के ह निरुक्ति द्वारै चौबीस नाम सम्भव है। इस काल में अन्य मतीन की अनेक स्थापना हो गई तात इस काल में तदाकार स्थापना की ही मुख्यता है। रत्नत्रयरूप करि वीतराग भाव करि पंच परमेष्ठी रूप एक ही प्रतिमा जाननी। तातै परमागम की आज्ञा बिना वृथा विकल्प करना शङ्का उपजावनी ठीक नहीं। सो भावनि के जोड़ वास्तै अाह्वाननादिकनि में पूष्पक्षेपण करिये है। पुष्पनि कू प्रतिमा नहीं जान है, ए तो माह्वाननादि का संकल्प ते पुष्पांजलि क्षेपण है। पूजन में पाठ रच्या होय तो स्थापना कर ले नाहीं होय तो नाहीं करै । अनेकान्तनि के सर्वथा पक्ष नाहीं । तदाकार प्रतिबिम्ब में ध्यान जोड़ने के अर्थ साक्षात् अरहन्त, सिद्ध, प्राचार्य, उपाध्याय साधुरूप का प्रतिमा में निश्चय करि प्रतिबिम्ब में ध्यान पूजन स्तवन करना।" -ज.सं. 17-5-56/VI/का ला. अ. देवली पूजा में चावलों का ही विशेष उपयोग क्यों ? शंका-पूजन करने के लिए अथवा द्रश्य चढ़ाने के लिये चावल ही विशेष काम में क्यों लाये जाते हैं और कोई वस्तु काम में क्यों नहीं लाई जातो? समाधान-जीव का पूजन करते समय अथवा द्रव्य चढ़ाते समय यह ध्येय रहता है कि उसको अतीन्द्रिय अनन्त सुखरूप अक्षयपद की प्राप्ति हो। इसीलिए पूजक उस जीव के गुणों का स्तवन व चितवन करता है जिसने अक्षयपद को प्राप्त कर लिया है। अक्षयपद को प्राप्त करनेवाले जीवके गुणों का अर्थात् शुद्धआत्मा के गुणों का ( अपने निजस्वभाव का ) चितवन करने से पूजक के कर्मों का संवर व निर्जरा होती है। जिस प्रकार किसान Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012009
Book TitleRatanchand Jain Mukhtar Vyaktitva aur Krutitva Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJawaharlal Shastri, Chetanprakash Patni
PublisherShivsagar Digambar Jain Granthamala Rajasthan
Publication Year1989
Total Pages918
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size20 MB
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