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________________ ६५८ ] नोट – “भक्त्याद्यासंवेयं" इसका अर्थ स्पष्ट समझ में नहीं प्राया है संभव है अशुद्ध हो । अभिषेक पूजा भक्ति - [ पं० रतनचन्द जैन मुख्तार : - जै. ग. 27-3-69 / IX / क्षु. श्रीतलसागर जन प्रतिमा की पूजा एवं स्थापना अनादि से है शंका- दिगम्बर जैन समाज में जिन प्रतिमा की पूजा एवं स्थापना कब से चालू हुई है ? नन्दीश्वरद्वीप में अकृत्रिम चैत्यालय होने का प्रमाण मूलसंघ आचार्यों के ग्रंथों के द्वारा देने की कृपा करें । समाधान - जैन समाज में जिनप्रतिमा की पूजा एवं स्थापना अनादिकाल से है, क्योंकि समवसरण में चैत्यवृक्ष तथा मानस्तम्भ में जिनप्रतिमा रहती है और जैनसमाज उनकी पूजा करता है । वे जिनेन्द्र भगवान की स्थापना के द्वारा ही जिनप्रतिमा कहलाती हैं, यदि उनमें जिनेन्द्र भगवान की स्थापना न होती तो वे जिनप्रतिमा न कहलातीं । तीर्थंकर भगवान अनादिकाल से होते प्राये हैं उनके समवसरण की रचना भी अनादिकाल से है । इसप्रकार जैनसमाज में अनादिकाल से जिनप्रतिमा की पूजा एव स्थापना है । नन्दीश्वरद्वीप में अकृत्रिम चैत्यालय होने का कथन त्रिलोकसार गाथा ९१३, तिलोयपण्णत्ती पांचवा अधिकार गाथा ७० में है । अन्य ग्रन्थों में भी है । - जै. ग. 4-4-63 / IX / अ. ला. जैन, शास्त्री वीतराग मूर्ति ही पूज्य है शंका- क्या हथियार वाली मूर्ति जैनधर्म को दृष्टि से पूजने या मानने योग्य है ? समाधान - जैनधर्म का मूल सिद्धान्त व ध्येय अहिंसा व वीतरागता रहा है। जैनधर्म में वीतराग मूर्ति की पूजा एवं आराधना बतलाई गई है, क्योंकि वीतराग मूर्ति की पूजा से परिणामों में वीतरागता आती है । हथियार सहित मूर्ति के दर्शन-पूजन से परिणामों में वीतरागता नहीं प्राती, किन्तु परिणामों में क्रूरता आती है, अतः ऐसी मूर्ति की पूजा जैनधर्म के सिद्धान्त से विरुद्ध है । -जै. ग. 4-4-63 / IX / हुकमचन्द स्थावर व जंगम प्रतिमा से अभिप्राय शंका- दर्शन पाहुड गाथा ३५ में १००८ शुभ लक्षण युक्त तथा ३४ अतिशय सहित समवशरण में विराजमान तथा विहार करते हुए तीर्थंकर भगवान को स्थावर प्रतिमा कहा गया है। सिद्धशिला की ओर जाते हुए उनको जङ्गम प्रतिमा कहा है । सो कैसे ? Jain Education International समाधान - १००८ शुभ लक्षण तथा ३४ अतिशय ये सब शरीर अथवा पुद्गल प्राश्रित हैं । जीव के बिना शरीर इधर-उधर नहीं जा सकता है अतः शरीर को स्थावर कहा गया है । शरीर रहित मात्र जीव ही मोक्ष को जाता है । जीव का ऊर्ध्व गमन स्वभाव है अतः शरीर रहित जीव को जङ्गम कहा गया है। संभवतः इस दृष्टि से स्थावर प्रतिमा व जङ्गम प्रतिमा का कथन किया गया है। For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012009
Book TitleRatanchand Jain Mukhtar Vyaktitva aur Krutitva Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJawaharlal Shastri, Chetanprakash Patni
PublisherShivsagar Digambar Jain Granthamala Rajasthan
Publication Year1989
Total Pages918
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size20 MB
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