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________________ व्यक्तित्व और कृतित्व ] [ ६५७ बाधा होने की सम्भावना रहती है। अतः श्रावक गमछे ( अंगोछे ) से मुनि महाराज का शरीर पूछ देता है । स्त्री के लिये मुनि महाराज का शरीर पोंछना उचित नहीं है । मूलाचार में आर्यिका के लिये भी साधु से सात हाथ दूर रहने की आज्ञा है। -णे. सं. 27-11-58/V/ बंशीधर एम. ए. शास्त्री श्रावक को मुनि के आहार की वेला टाल कर फिर भोजन करना चाहिए शंका-श्रावक का कर्तव्य सत्पात्र को आहारदान देकर भोजन करना है। मुनियों के अभाव में और उनकी आशा के अभाव में क्या प्रतिदिन द्वारापेक्षण करना आवश्यक है ? तीनों प्रकार ( उत्तम, मध्यम व जघन्य ) के पात्रों का संयोग न होने पर भी क्या कुत्ते आदि को रोटी खिलानेमात्र से संतोष पाले ? समाधान-मुनियों के अभाव में और उनकी आशा के अभाव में द्वारापेक्षण करना आवश्यक नहीं है, किन्तु मुनियों की ग्राहारवेला को टालकर श्रावक को भोजन करना चाहिए। भोजन से पूर्व इसप्रकार की भावना भानी चाहिए कि यदि मुनियों को प्राहार देने का शुभ अवसर प्राप्त होता तो उत्तम था, किन्तु मैं ऐसे निकृष्ट क्षेत्र व काल में उपस्थित हूँ कि जहां पर पात्र का समागम प्राप्त नहीं हो रहा है। कुत्ते आदि को रोटी खिलाना करुणादान है उससे पात्रदान को पूर्ति नहीं हो सकती। -जं.सं. 8-3-57/....... आहारदान में पर-व्यपदेश दोष का स्पष्टीकरण शंका-रा. वा. पृ. ५५८ में 'परव्यपदेश' आया है सो इसका स्पष्टार्थ क्या है ? समाधान-राजवातिक में 'परव्यपदेश' का अर्थ इस प्रकार किया है"अन्यत्र दातारः सन्ति वीयमानोऽप्यमन्यस्येति वा अर्पणं परव्यपदेश इति प्रतिपाद्यते ।" दातार अन्य स्थान पर है और दीयमान द्रव्य दूसरे का हो, इन अवस्थाओं में प्राहार देने पर व्यपदेश नाम का दोष है। इस का स्पष्ट प्रथं इस प्रकार है "अपरदातुर्वेयस्यार्पणं मम कार्य वर्तते त्वं देहीति परव्यपदेशः परस्य व्यपदेशः कथनं परव्यपदेशः। अथवा परेऽत्र दातारो वर्तन्ते नाहमा दायको वर्ते इति व्यपदेशः परध्यादेशः । अथवा परस्येदं भक्त्यासंदेयं न मया इदमोदृशं वा देयमिति परव्यपवेशः । ननु परव्यपदेशः कथ मतिचार इति चेत् ? उच्यते धनादिलाभाकाङ्क्षया अतिथिबेलायामपि द्रध्याच पार्जनं परिहतु मशक्नुवन परवातृहस्तेन योग्योऽपि सन् वानं दापयतीति महान अतिचारः।" तत्त्वार्थवृत्ति पृ. २५४ अर्थात्-दूसरे दातार के देयपदार्थ को देना, मुझे तो कार्य है, तुम दे देना यह परव्यपदेश है। दूसरे को कहना परव्यपदेश है । अथवा यहाँ दूसरे अनेक दातार हैं मैं यहाँ दायक नहीं हूँ, ऐसा कहना परव्यपदेश है। दूसरे ही यह और इस प्रकार का आहार दे सकते हैं मेरे द्वारा यह और इस प्रकार का आहार नहीं दिया जा सकता, यह भी परव्यपदेश है। पर व्यपदेश अतिचार कैसे होता है ? धनादि लाभ की आकांक्षा से आहार देने के समय में भी व्यापार को न छोड़ सकने के कारण योग्यता होने पर भी दूसरों से दान दिलाने के कारण परव्यपदेश अतिचार होता है। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012009
Book TitleRatanchand Jain Mukhtar Vyaktitva aur Krutitva Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJawaharlal Shastri, Chetanprakash Patni
PublisherShivsagar Digambar Jain Granthamala Rajasthan
Publication Year1989
Total Pages918
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size20 MB
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