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________________ [ पं० रतनचन्द जैन मुख्तार : अद्धिदुणिहा सवे सयपण्णासढदोह वासुदया। आसणतियं तदुरि जिणसोहम्मबुगपडिबद्ध॥ त्रि० सा० ६३५ विदिशु क्रमशो हैमी राजती तापनीयिका । लोहिताक्षमयी चैता अर्धचन्द्रोपमाः शिलाः।लो० वि० ११२८३ उत्तरपच्छिमभागे सुरिदधणुणिभा परमरम्मा। रत्तसिला णायव्वा तवणिज्जणिभा समुद्दिद्वा ॥ ज०५०४।१४१ पंडवणे उत्तरए एदाण दिसाए होदि पंडुसिला । तह वणवेदीजुत्ता अद्धतुसरिच्छ संठाणा । १८१८ ति० ५० ४।१८१८ -जें.ग. 29-8-74/VII/मगनमाला सिद्धशिला शंका-सिद्धशिला पैंतालीस लाख योजन की है। वहाँ पर सिद्ध जीव रहते हैं, वह पृथ्वीकायिक है अथवा अन्य रूप? समाधान-सिद्धशिला पृथ्वीकायिक है। सिद्ध जीव उस पर सटकर नहीं रहते किन्तु सिद्धशिला और सिद्धजीवों के निवास स्थान के मध्य काफी अन्तर है। सिद्ध जीवों के निवास स्थान के सन्निकट होने से उसे सिद्धशिला कहते हैं। -जं. सं. 13-12-56/VII/ ल. घ. धरमपुरी सिद्ध शिला शंका-मूलाराधना गाथा २१३३ में "सिद्धक्षेत्र का ईषत्प्राग्भार पृथिवी ऐसा नाम है, एक योजन में कुछ कम है ऐसा निष्कंप स्थिर स्थान में सिद्ध प्राप्त होकर तिष्ठे हैं" ऐसा कहा है । जब सिद्धशिला ४५००००० योजन की बताई है सो सिद्धक्षेत्र का प्रमाण एक योजन कैसे? यहां पर बड़े योजन से प्रयोजन है या छोटे योजन से? समाधान-सर्वार्थ सिद्धि इन्द्रक विमान के ध्वज दण्ड से बारह योजन मात्र ऊपर जाकर आठवीं पथिवी स्थित है जो पूर्व-पश्चिम में कुछ कम एक राजु प्रमाण है, उत्तर-दक्षिण में कुछ कम सात राजु लम्बी और आठ योजन बाहल्यवाली है इसके बहु मध्य भाग में चांदी एवं सुवर्ण के सदृश और नाना रत्नों से परिपूर्ण ईस नामक क्षेत्र है जो उत्तान धवल क्षेत्र के सदृश प्राकार से सुन्दर और पैंतालीस लाख योजन प्रमाण विस्तार से संयुक्त है। उसका मध्य बाहुल्य आठ योजन और अन्त में एक अंगूल मात्र है। अष्टम भूमि में स्थित सिद्धक्षेत्र की परिधि मनुष्य क्षेत्र की परिधि के समान है । ति० ५० महाधिकार ८/६५२-६५८। इस आठवीं पृथिवी के ऊपर सात हजार पचास धनुष ( कुछ कम एक योजन ) जाकर सिद्धों का आवास है-ति० ५० अधिकार ९/३ । आठवीं पथिवी के ऊपर दो कोस अर्थात् ४००० धनुष का घनोदधि वातवलय उसके ऊपर एक कोस अर्थात् २००० धनुष का धनवातवलय उसके ऊपर १५७५ धनुष का अर्थात् ४२५ धनुष कम एक कोस का तनुवातवलय है। ४ कोस का एक योजन होता है। तीनों वातवलय की मोटाई ४२५ धनुष कम एक राजु है अतः गाथा २१३३ में ईषत्प्राग्भार से कुछ कम एक योजन ऊपर जाकर सिद्धों का स्थान है, ऐसा कहा है। यहां पर एक योजन लम्बाई चौडाई का प्रमाण नहीं है किन्तु बाहल्य का प्रमाण है। सिद्धों का आवास तो तनुवातवलय के अन्तिम भाग में है। जो मनुष्य क्षेत्र के समान ४५००००० योजन का है। यहां पर बड़े योजन से प्रयोजन है। -जं. ग. 30-5-63/9-10/ प्या. ला. बड़जात्या, अजमेर Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012009
Book TitleRatanchand Jain Mukhtar Vyaktitva aur Krutitva Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJawaharlal Shastri, Chetanprakash Patni
PublisherShivsagar Digambar Jain Granthamala Rajasthan
Publication Year1989
Total Pages918
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size20 MB
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