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________________ व्यक्तित्व और कृतित्व ] [ ६११ सिद्धशिला में एकेन्द्रिय; सिद्धशिला के ऊपर मुक्त जीवों का स्थान शंका--सिद्ध शिला में क्या एकेन्द्रिय जीव भी होते हैं जैसे पृथिवीकाय पवनकाय आदि ? मुक्त जीवों का स्थान कहाँ पर है ? ___ समाधान-सिद्धशिला स्वयं पथिवीकायिक है। उसमें असंख्याते एकेन्द्रिय पृथिवी जीव हैं । पृथिवी के अतिरिक्त अन्य चारों स्थावरकाय बादर जीव भी वहाँ पर हैं। सूक्ष्म एकेन्द्रिय जीव तो लोक में सर्वत्र पाये जाते हैं। अतः सिद्ध-शिला में एकेन्द्रिय जीव हैं। सिद्ध शिला के ऊपर दो कोस मोटा घनोदधि वात वलय, उसके ऊपर एक कोस मोटा घनवातवलय और उसके ऊपर १५७५ धनुष मोटा तनुवातवलय है। तनुवातवलय के ऊपरले भाग में मुक्त जीवों का स्थान है । लोकाकाश के अन्त तक ही मुक्त जीव जा सकते हैं। यद्यपि उनमें उससे ऊपर भी गमन करने की शक्ति है, क्योंकि उनका ऊर्ध्वगमन स्वभाव है और कर्मों का सर्वथा अभाव हो जाने से उस ऊर्ध्व-गमन शक्ति का कोई प्रतिबन्धक रहा नहीं फिर भी गमन में सहकारी कारण धर्म द्रव्य का अभाव हो जाने से मुक्त जीव लोकाकाश के आगे नहीं जा सकते । अन्तरङ्ग और बाह्य दोनों कारणों के मिलने पर कार्य की सिद्धि होती है। किसी भी एक कारण का प्रभाव हो जाने पर कार्य नहीं होता। अतः धर्मास्तिकाय के अभाव के कारण मुक्त जीव लोक के अग्र भाग में स्थित हैं, वही मुक्त जीवों का स्थान है। त० त०, ०१०, सूत्र ५ से ८ । -ज.ग.5-4-62/मगनमाला ऊर्ध्वलोक सिद्धक्षेत्र अधोलोक सिद्धक्षेत्र शंका-सर्वार्थसिदि अध्याय १० में ऊर्व अधोलोक व सिद्धों का वर्णन आया है। इन क्षेत्रों का यहाँ क्या परिमाण है ? समाधान-चित्रा पथ्वी के ऊपरले तल भाग से ऊपर का प्रकाश क्षेत्र ऊर्वलोक और ऊपरले तल भाग से नीचे का क्षेत्र जैसे कुप्रां खाई आदि अधोलोक कहलाता है। उपसर्ग के द्वारा ऊवं व अधः दोनों लोकों से भी सिद्ध होना सम्भव है। जैसे किसी देव ने मुनि महाराज को ऊपर प्राकाश में से छोड़ दिया वे पृथ्वी पर आने से पूर्व ही अधर से मोक्ष को प्राप्त हो गये। ये ऊर्वलोक सिद्ध हैं। किसा देव ने मुनि महाराज को किसी कुएं या खाई में डाल दिया और वहाँ से सिद्धगति को प्राप्त हए वे अधोलोक सिद्ध हैं। --णे. ग. 16-5-63/IX/ प्रो. म. ला. जैन काल हुडावसर्पिणी की तरह हुडोत्सपिणी काल नहीं होता शंका-हुडावसर्पिणी की तरह हुडोत्सपिणी काल भी होता है क्या ? समाधान-समयसार की टीका में श्री जयसेन आचार्य ने तथा तिलोयपण्णत्ती आदि ग्रन्थों में हंडावसर्पिणी काल का कथन तो मिलता है, किन्तु हुँडोत्सपिणी काल का कथन नहीं पाया जाता है। इससे सिद्ध होता है कि हुडोत्सपिणी काल नहीं होता है। -जे. ग. 1-4-71/VII/ र. ला. गन, मेरठ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012009
Book TitleRatanchand Jain Mukhtar Vyaktitva aur Krutitva Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJawaharlal Shastri, Chetanprakash Patni
PublisherShivsagar Digambar Jain Granthamala Rajasthan
Publication Year1989
Total Pages918
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size20 MB
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