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________________ ५०८ ] [ पं० रतनचन्द जैन मुसार : अनूभागकाण्डकघात के साथ स्थितिघात होना अवश्यम्भावी नहीं है । स्थितिकांडकघात के साथ अनुभागकांडकघात होना अवश्यम्भावी नहीं है, क्योंकि पुण्यप्रकृतियों का अपूर्वकरणादि परिणामों द्वारा स्थितिकांडकघात तो होता है, किंतु अनुभागकांडकघात नहीं होता। अनुभाग सम्बन्धी अनन्तवर्गणाएँ प्रतिसमय उदय में आती हैं । अपूर्वकरणादि विशुद्ध परिणामों द्वारा शुभ और अशुभ दोनों प्रकृतियों का स्थितिघात होता है । अकालमरण के समय प्रायु का स्थितिघात तो होता है, किंतु अनुभागघात नहीं होता। संक्लेश परिणामों से शुभप्रकृतियों के अनुभाग का अपकर्षण हो जाता है, किंतु स्थिति का अपकर्षण नहीं होता, क्योंकि तीन शुभ आयु के अतिरिक्त शेष सब शुभ-अशुभ प्रकृतियों का स्थितिबन्ध अशुभ है। (गो. क. गा. १५४ ) अतः संक्लेश परिणामों से शुभप्रकृतियों का स्थितिबन्ध, जो अशुभरूप है, उसका घात नहीं हो सकता है। स्थितिसत्त्व से अनुभागसत्त्व की जाति भिन्न है । ( जयधवल पु० १ पृ. १९४ ) -पत्राचार 4-8-78/ज. ला. जैन, भीण्डर अविभाग प्रतिच्छेद की परिभाषा शंका-अविभागप्रतिच्छेद किसको कहते हैं ? समाधान-अविभागप्रतिच्छेद का कथन दो अपेक्षाओं से पाया जाता है। एक तो कर्म व नोकर्मवर्गणा की अपेक्षा, दूसरे जीव प्रदेश व पुद्गल परमाणु के शक्तिअंश की अपेक्षा । इन दोनों अपेक्षाओं से प्रविभागप्रतिर का लक्षण भी दो प्रकार से पाया जाता जाता है । कर्म और नोकर्म की अपेक्षा लक्षण इस प्रकार हैं "सम्वमेवाणुभागपरमाणु घेतूण वण्ण-गंध-रस मोत्तूण पासं चेव बुद्धीए घेत्तूण तस्स पणाच्छेदो कायम्वो जाव विभागवज्जिव परिच्छेदात्ति।" (ध० पु० १२ पृ० ९२) "तत्र सर्वजघन्यगुणः प्रदेशः परिगृहीतः तस्यानुभागः प्रज्ञाछेदेन तावडा परिच्छिन्नः यावत्पुनविभागो न भवति । ते अविभागपरिच्छेवाः।" ( राजवातिक अ. २ सूत्र ५ वार्तिक ४) . "सरीर परुवणदाए अणंत अविभागपडिच्छेदो सरीरबंधणगुणपण्णच्छेवणणिपण्णा।" ( धवल १४/४३४) सर्वमन्द अनुभाग से संयुक्त कर्मपरमाणु को ग्रहण करके, वर्ण, गंध, रस को छोड़कर केवल स्पर्श का ही बद्धि से ग्रहण कर उसका विभागरहित छेद होने तक प्रज्ञा के द्वारा छेद करना चाहिये। छेदन के अयोग्य उस अन्तिमखण्ड की अविभागप्रतिच्छेद संज्ञा है। शरीरप्ररूपणा की अपेक्षा शरीर-बंधन के कारणभूत गुण ( अनुभाग) का प्रज्ञा से छेद करने पर अनन्त अविभागप्रतिच्छेद उत्पन्न होते हैं। "को अणुभागोणाम ? अटुण्णं वि कम्माणं जीवपदेसाणं च अण्णोण्णाणुगमणहेतु परिणामो।" पाठों कर्मों और जीव प्रदेशों की परस्पर एकरूपता के कारणभूत परिणाम अनुभाग है। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012009
Book TitleRatanchand Jain Mukhtar Vyaktitva aur Krutitva Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJawaharlal Shastri, Chetanprakash Patni
PublisherShivsagar Digambar Jain Granthamala Rajasthan
Publication Year1989
Total Pages918
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size20 MB
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