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________________ व्यक्तित्व और कृतित्व ] पुद्गल परमाणु की अपेक्षा अविभागप्रतिच्छेद का लक्षण निम्न प्रकार से है " एगपरमाणुम्हि जा जहष्णिया चड्ढी सो अविभाग पडिच्छेदोणाम ।" ( धवल १४ पृ. ४३१ ) "मादाणाम अविभाग परिच्छेदो । कि पमाणं तस्स ? जहण्णगुणवड्डिमेतो ।" ( धवल १४ पृ. ३२ ) एक परमाणु में जितनी जघन्य वृद्धि होती है वह श्रविभाग प्रतिच्छेद है। मात्रा का अर्थ अविभाग प्रतिच्छेद है । गुण की जघन्य वृद्धिमात्र उसका प्रमाण है । योग की अपेक्षा अविभागप्रतिच्छेद का कथन इस प्रकार है "एक्क हि जीवपदेसे जोगस्स जा जहष्णिया वड्ढी सो जोगाविभागपडिच्छेदो ।" ( धवल १० पृ. ४४० ) "जीवप्रदेशस्य कर्मावानशक्तो जघन्यवृद्धिः योगस्याधिकृतत्वात् ।' ( गो . क. जी. प्र. टीका २२८ ) मात्मा के एकप्रदेश में योग ( कर्मग्रहण की शक्ति ) की जो जघन्यवृद्धि है वह योग अविभागप्रतिच्छेद है । यदि यह कहा जावे योग ( कर्मग्रहण शक्ति ) को वृद्धि से छेदने पर जो अविभागी अंश प्राप्त होता है वह अविभागप्रतिच्छेद है, सो ऐसा कहना ठीक नहीं है, क्योंकि पहले प्रविभागप्रतिच्छेद के अज्ञात होने पर बुद्धि से छेद करना सम्भव नहीं है । दूसरे जैसे कर्म के अविभागप्रतिच्छेद अनन्त हैं, वैसे ही योग के अविभागप्रतिच्छेद भी अनन्त हो जाने से 'योग के अविभागप्रतिच्छेद असंख्यातलोकप्रमाण हैं' इस सूत्र से विरोध हो जायगा । ( धवल १० पृ० ४४१ ) जै. ग. 17-4-75 /VI / प्रो. ल. च. जैन [ ५०६ वर्ग, वर्गणा, स्पर्द्ध क शंका- एक वर्गणा में जितने वर्ग हैं उन सबमें अविभागप्रतिच्छेद समान ही रहते हैं या कम-ज्यादा भी ? समाधान - एक वर्गणा में जितने भी वर्ग हैं उन सबमें प्रविभागप्रतिच्छेद समान ही रहते हैं, हीनाधिक नहीं होते । शंका -- प्रथमवर्गणा से द्वितीयवर्गणा में एक अधिक अविभागप्रतिच्छेद वाले वर्ग रहते हैं । लेकिन वर्ग कितने रहते हैं ? कम या ज्यादा ? क्या यह कोई नियम नहीं है, सिर्फ अविभागप्रतिच्छेव ज्यादा रहते हैं यही नियम है ? वर्ग कम-ज्यादा भी रह सकते हैं क्या ? । समाधान- प्रथमस्पर्द्धक की प्रथमवगंगा में सबसे अधिक वर्ग होते हैं प्रथमवर्गणा की अपेक्षा कम होती है । इसी प्रकार तृतीय आदि वर्गरणाओं में जाती है, किंतु अविभागप्रतिच्छेद प्रतिवर्गणा अधिक होते चले जाते हैं । Jain Education International For Private & Personal Use Only द्वितीय वर्गरणा में वर्गों की संख्या, वर्गों की संख्या हीन होती चली - पत्राचार / ब. प्र. स., पटना www.jainelibrary.org
SR No.012009
Book TitleRatanchand Jain Mukhtar Vyaktitva aur Krutitva Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJawaharlal Shastri, Chetanprakash Patni
PublisherShivsagar Digambar Jain Granthamala Rajasthan
Publication Year1989
Total Pages918
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size20 MB
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