SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 442
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ ३९८ ] [पं० रतनचन्द जैन मुख्तार । "सम्यग्दर्शनस्य बढायुषां प्राणिनां तत्सद्गत्यायुः सामान्येनाविरोधिनस्तत्तद्गति-विशेषोत्पत्तिविरोधित्वो. पलम्भात् । तथा च भवनवासिम्यन्तरज्योतिष्कप्रकीर्णकाभियोग्यकिल्विषिकपृथ्वीषटकस्त्रीनपुंसकविकलेन्नियलध्यपर्याप्तककर्म भूमिजतिर्यक्षु चोत्पत्त्या विरोधोऽसंयत सम्यग्दृष्टेः सिदध्येविति तत्र ते नोत्पद्यन्ते।" (धवल पु० १ पृ० ३३७) अर्थ-जिन्होंने पहले आयुकर्म का बन्ध कर लिया है ऐसे जीवों के सम्यग्दर्शनका उस गतिसम्बन्धी आयुसामान्य के साथ विरोध न होते हुए भी उस उस गतिसम्बन्धी विशेष में उत्पत्ति के साथ विरोध पाया जाता है। ऐसी अवस्था में भवनवासी, व्यन्तर, ज्योतिषी, प्रकीर्णक, प्राभियोग्य और किल्विषिक देवों में, नीचे के छहनरकोंमें सबप्रकार की स्त्रियों में, नपुसकवेद में, विकलत्रयों में लब्ध्यपर्याप्तक जीवों में और कर्मभूमिजतियंचों में प्रसंयतसम्यग्दृष्टि का उत्पत्ति के साथ विरोध सिद्ध हो जाता है, इसलिये इतने स्थानों में सम्यग्दृष्टिजीव उत्पन्न नहीं होता है। छसु हेटिमासु पुढवीसु जोइसवण-भवण-सव्वइत्थीसु । वेसु समुप्पज्जइ सम्माइट्ठी दु जो जीवो ॥ १३३ ॥ (धवल पु० १पृ० २०९) अर्थ-जो सम्यग्दृष्टि जीव होता है। वह प्रथमपृथिवी के बिना नीचे की छहपृथिवियों में, ज्योतिषी, व्यन्तर और भवनवासीदेवों में और सर्व प्रकार की स्त्रियों में उत्पन्न नहीं होता है। सर्वार्थसिद्धि अध्याय १ सूत्र ७की टीका से भी यह स्पष्ट हो जाता है कि सम्यम्हष्टि मरकर भाव या दृष्यवेदसहित तियंचनी, मनुष्यनी या देवांगना में उत्पन्न नहीं होता। -जे.ग. 27-12-65/VIII/र. ला.जैन, मेरठ सम्यक्त्व का फल का-रत्नकरण्डधावकाचार श्लोक ३५ व ३६ में लिखा हुआ फल कौनसे सम्यक्त्वधारी को मिलता है ? समाधान-रत्नकरण्डधावकाचार श्लोक ३५ इस प्रकार है सम्यग्दर्शनशुद्धा नारकतिर्यक नपुसकस्त्रीत्वानि । दूष्कूलविकृतास्पायुर्वरिततां च व्रजन्ति नाप्यवतिकाः ॥३॥ अर्थ-जो जीव सम्यग्दर्शनकरि शुद्ध हैं ते व्रत रहित हूं नारकीपणा, तियंचपणा, नपुसकपणा, स्त्रीपणा नाहीं प्राप्त होय है और नीचकुली, विकृतअंगी, पल्प आयुवाले तथा दरिद्री नहीं होय हैं। उपशम, क्षयोपशम तथा क्षायिक तीनों सम्यग्दृष्टि इन अवस्थाओं को प्राप्त नहीं होते हैं, किन्तु जिस जीव ने मिथ्यात्वअवस्था में नरक या तियंचायु का बन्ध कर लिया हो तत्पश्चात् क्षायिकसम्यक्त्व को प्राप्त कर लिया हो या कृतकृत्यवेदकसम्यग्दष्टि हो गया हो वह सम्यग्दृष्टिजीव मरकर प्रथमनरक में नपुसकवेद सहित नारकी तथा भोगभूमि में तिथंच हो सकता है । सम्यक्त्व की उत्पत्ति से बँधी हुई मायु का छेद नहीं होता। आयुकर्म बहुत Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012009
Book TitleRatanchand Jain Mukhtar Vyaktitva aur Krutitva Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJawaharlal Shastri, Chetanprakash Patni
PublisherShivsagar Digambar Jain Granthamala Rajasthan
Publication Year1989
Total Pages918
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size20 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy