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________________ व्यक्तित्व और कृतित्व ] [ ३६६ बलवान है। जिस जीव ने जिस आयु का बन्ध कर लिया है, उस आयु का फल उस जीव को अवश्य भोगना पड़ेमा । एक आयु का दूसरी आयु में संक्रमण भी नहीं होता। ओजस्तेजोविद्यावीर्ययशोवृद्धिविजयविभवसनाथाः । माहाकुला महार्था मानवतिलका भवन्ति दर्शनपूताः ॥३६॥ अर्थ-सम्यग्दर्शन करि पवित्र पुरुष हैं ते मनुष्यनि का तिलक होय है, पराक्रम, प्रताप, अतिशयरूप ज्ञान, अतिशयरूप वीर्य, उज्ज्वल यश, गुण व सुख की वृद्धि, विजय और विभव इन समस्त गुणनि का स्वामी होय है । ये सब गुण उपशम, क्षयोपशम तथा क्षायिक इन तीनों प्रकार के सम्यग्दृष्टि जीवों को प्राप्त होते हैं। सम्यग्दर्शन एक अनोखा गुण है। जिस वस्तु का जो स्वभाव है, उस वस्तु का उस स्वभाव सहित, विपरीतामिनिवेश रहित श्रद्धान करना सो सम्यग्दर्शन है। यह गूण अतिसूक्ष्म है, इसका जघन्यकाल भी किसी भी जीव के विषय में यह निश्चयरूप से नहीं कहा जा सकता कि यह जीव सम्यग्दृष्टि है अथवा मिथ्यादृष्टि । उपर्युक्त गुण मिथ्यादृष्टिजीव को भी प्राप्त हो जाते हैं । -जं. सं. 17-1-57/VI/ सॉ. च. का. डबका स्वयंभूरमण समुद्र में वेशना-प्राप्ति कैसे? शंका अन्तिम स्वयंभूरमण समुद्र में असंख्याते तिथंच संयमासंयमी हैं। उनको उपदेश कोन देता है, क्योंकि वहां मनुष्य तो जा नहीं सकता? समाधान-देवों के उपदेश द्वारा अथवा जातिस्मरण से स्वयम्भूरमण समुद्र में सम्यक्त्व व संयमासंयम हो जाता है। -जै. ग. 12-12-66/VII/ ज. प्र. म. कु.जैन सम्यग्दृष्टि के बन्ध व सत्त्व में तारतम्य शंका-एक मिथ्यादृष्टि जीव तीन करण करके सम्यक्त्व को प्राप्त होता है, उस समय कर्मों की स्थिति अंत:कोटाकोटीप्रमाण रह जाती है । इसके बाद देवकसम्यक्त्व को प्राप्त होकर बहुतकाल तक सम्यक्त्वसहित रह सकता है। उससमय वह जीव यदि कर्मों का बंध करे तो जो पूर्व में बंध करता था उससे जितना समय बीत गया उतना हीनबंध करेगा या पूर्व में किया उतना ही कर लेगा? समाधान-सम्यग्दृष्टि नीव के कर्मों का जितना भी स्थितिसत्त्व होता है स्थिति बंध उस स्थितिसत्व से बहुत कम होता है। स्थितिबंध कभी भी स्थितिसत्त्व से अधिक नहीं होता, क्योंकि स्थितिसत्त्व की अपेक्षा सम्यगइष्टि के बन्ध मात्र अल्पतर ही होता है मुजगार नहीं होता ( जयधवल पु०४ पृ० ५) और इस अल्पतर का उत्कृष्टकाल कुछ अधिक ६६ सागर है, क्योंकि सम्यग्दर्शन का उत्कृष्टकाल भी इतना ही है। इस ६६ सागरकाल के भीतर जीव संयम से असंयम में और असंयम से संयम को प्राप्त होता है अतः स्थितिबंध कभी हीन और कभी अधिक होता है। इसलिये स्थितिबंध की अपेक्षा वेदकसम्यग्दृष्टि के भुजगार व अल्पतर दोनों होते हैं ( महाबंध पु० ३० ३२८)। - जं. ग. 5-3-64/IX/स. कु. सेठी Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012009
Book TitleRatanchand Jain Mukhtar Vyaktitva aur Krutitva Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJawaharlal Shastri, Chetanprakash Patni
PublisherShivsagar Digambar Jain Granthamala Rajasthan
Publication Year1989
Total Pages918
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size20 MB
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