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________________ व्यक्तित्व और कृतित्व ] [ ३९७ सशल्य को सम्यक्त्व दुर्लभ है शंका-माया, मिथ्या, निदान इन तीन शल्य में से किसी भी एक शल्य का अस्तित्व बाकी रहते हुए आत्मा को सम्यक्त्व उपलब्ध हो सकता है या नहीं? अगर नहीं हो सकता तो भगवान बाहुबली को कैसे हुआ? अगर हो सकता है, तो मिथ्यात्व शल्य रहते हुए सम्यक्त्व कैसे हो सकेगा? समाधान-तीनों शल्य का स्वरूप इसप्रकार है-'राग के उदय से परस्त्री आदि की वांछा रूप और द्वेष से अन्य जीवों को मारने, बांधने अथवा छेदने आदि की वांछारूप मेरा दुर्ध्यान है, उसको कोई भी नहीं जानता है, ऐसा मानकर, निजशुद्धात्म भावना से उत्पन्न, निरन्तर प्रानन्दरूप एक लक्षणवाले सुखअमृतरसरूप निर्मलजल से अपने चित्त की शुद्धि को न करता हुमा, यह जीव बाहर में बगुले जैसे वेष को धारण कर, लोक को प्रसन्न करता है, यह मायाशल्य कहलाती है।' 'अपना निरंजन दोषरहित परमात्मा ही उपादेय है, ऐसी रुचिरूप सम्यक्त्व से विलक्षण, मिथ्यात्वशल्य कहलाती है ।' निर्विकार परमचैतन्यभावना से उत्पन्न एक परम प्रानन्दस्वरूप सुखामृतरस के स्वाद को प्राप्त न करता हुअा, यह जीव देखे सुने और अनुभव में पाये हुए भोगों में जो निरन्तर चित्त को देता है वह निदान-शल्य है।' ( वृहद्मथ्य संग्रह गाथा ४२ टीका )। इन तीनों शल्य का स्वरूप सिद्धान्तसारसंग्रह चतुर्थऽध्याय में दिया है। इससे प्रतीत होता है कि माया, मिथ्या, निदानशल्य होते हुए सम्यक्त्व होना दुर्लभ है। मिथ्यात्वशल्य होते हुए सम्यक्त्व होना असंभव है। श्री बाहुबली स्वामी को माया मिथ्या निदान इन तीन शल्यों में से एक भी शल्य नहीं था। अतः उनको सम्यक्त्व होने में कोई बाधा नहीं है । -~-जं. सं. 25-12-58/v/र. प. महाजन, गिरडशाहपुर सम्यक्त्वी मरकर द्रव्यस्त्रीवेद व भावस्त्रीवेद में जन्म नहीं लेता शंका-सम्यग्दृष्टि मरकर स्त्रियों में उत्पन्न नहीं होता। तब क्या यह समझना चाहिये कि सम्यग्दर्शन को लेकर जो पर्याय होगी उसमें भाववेद व द्रव्यवेद दोनों ही स्त्रीवेद नहीं होंगे ? समाधान-यह एक साधारण नियम है कि सम्यग्दृष्टि मरकर जिस गति में भी उत्पन्न होता है उसमें विशिष्ट वेदादिक में ही उत्पन्न होता है । कहा भी है"यत्र क्वचन समुत्पद्यमान सम्यग्दृष्टिस्तत्र विशिष्टवेदादिषु समुत्पद्यत इति गृह्यताम् । (धवल पृ० १ पृ० ३२८ सूत्र ८ को टीका) अर्थ-सम्यग्दृष्टि जिस किसी गति में उत्पन्न होता है उस गतिसम्बन्धी विशिष्टवेदादिक में ही उत्पन्न होता है। यह अभिप्राय यहाँ पर ग्रहण करना स्त्रीपर्याय व स्त्रीवेद चूकि निकृष्ट हैं, अतः सम्यग्दृष्टि सब प्रकार की स्त्रियों में उत्पन्न नहीं होता। अर्थात द्रव्यस्त्री, भावस्त्री तिर्यंच अथवा तिथंचनी, मनुष्यनी और देवांगनाओं में उत्पन्न नहीं होता। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012009
Book TitleRatanchand Jain Mukhtar Vyaktitva aur Krutitva Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJawaharlal Shastri, Chetanprakash Patni
PublisherShivsagar Digambar Jain Granthamala Rajasthan
Publication Year1989
Total Pages918
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size20 MB
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