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________________ ३९६ ] [ पं० रतनचन्द जैन मुख्तार : मिथ्यात्व से किस-किस सम्यक्त्व की प्राप्ति सम्भव है ? शंका-मिथ्यात्व से क्या प्रथमोपशमसम्यक्त्व ही होता है या क्षयोपशम या क्षायिकसम्यक्त्व भी हो सकते हैं ? समाधान-अनादिमिथ्याष्टि के दर्शनमोह की एक मात्र मिथ्यात्वप्रकृति का ही सत्त्व होता है अतः उसके प्रथमोपशमसम्यक्त्व ही उत्पन्न होता है । श्री गुणधर महानाचार्य ने कषायपाहुड सुत्त में कहा है सम्मत्तपढमलंभो सम्वोवसमेण तह विय?ण । भजियव्वोय अभिक्खं सव्वोवसमेण देसेण ॥१०४॥ श्री जयधवल टोका-जो सम्मत्तपढमलंभो अणादियमिच्छाइट्टि विसओ सो सव्वोवसमेणेव होइ, तत्थ पयारंतरासंभवादो। मिच्छत्तं गंतूण जो बहुअं कालमंतरिदूण सम्मत्तं पडिवज्जइ सो वि सम्वोवसमेणेव पडिवज्जइ। माम ऐसण पणो मिच्छतं पडिबज्जिय सम्मत्तसम्मामिच्छताणि उध्वेल्लिटण पलिटोवमम्स अ कालेण वा अद्धपोग्गलपरियट्ट मेत्तकालेण वा [ अद्धपोग्गलपरियट्टमेत्तकालेण वा ] जो सम्मत्तं पडिवज्जइ, सो वि सम्बोव समरोव पडिवज्जइत्ति भणिवं होइ। जब वेदगपाओग्गजकालेब्भतरं चेव सम्म पडिवउजइ तो देसोवसमेण अण्णहा खुण सव्वोवसमेण पडिवज्जइ। सम्मत्त देसघादि फहयाणमुदओ देसोवसमो त्ति भण्णवे। यहाँ पर यह बतलाया गया है कि अनादिमिथ्यादृष्टि के उपशमसम्यक्त्व ही होगा। जिसको सम्यक्त्व से गिरकर मिथ्यात्व में गये हुए जघन्य से पल्यका-असंख्यातवांभागकाल और उत्कृष्ट से अर्धपुद्गलपरावर्तनकाल हो गया है, उसके भी उपशमसम्यक्त्व होगा। जिसको वेदकसम्यक्त्व योग्यकाल में सम्यक्त्व होता है उसको क्षयोपशमसम्यक्त्व होता है। इसमें देशघातियासम्यक्त्वप्रकृति का उदय रहता है। वेदक सम्यक्त्वयोग्यकाल को बतलाने वाली निम्न गाथा है उदधिपुधत्तं तु तसे पल्लासंखूणमेगमेयखे । जाव य सम्म मिस्सं वेदगजोग्गो य उवसमस्सतादो ॥६१५॥ गो.क. जब तक सम्यक्त्वप्रकृति और मिश्र ( सम्यग्मिध्यात्व ) प्रकृति की स्थिति पृथक्त्वसागरप्रमाण त्रस के शेष रहे और पल्यके असंख्यातवेंभागहीन एकसागरप्रमाण एकेन्द्रिय के शेष रह जावे, तब तक वह वेदक सम्यक्त्वयोग्यकाल है। यदि इन दोनों प्रकृतियों की सत्त्वस्थिति इससे भी कम रह जावे तो वह उपशम सम्यक्त्वकाल है। "उवसंतदंसणमोहणीय पढमसमए तिणि कम्मंसा उप्पादिदा । मिच्छत्त, सम्मत्त, सम्मामिच्छत्त" उस ही उपशांतदर्शनमोहनीय के प्रथमसमय में मिथ्यात्व, सम्यक्त्व, सम्यग्मिथ्यात्व ऐसे मिथ्यात्व के तीन कर्मप्रकृति भेद उत्पन्न करता है। ( जयधवल पु० १२ पृ० २८१) क्षायिक सम्यग्दर्शन तो अनन्तानुबंधी चतुष्क की विसंयोजना वाले अर्थात् मोहनीय कर्म की २४ प्रकृतियों की सत्तावाले क्षयोपशमसम्यग्दृष्टि जीव के होता है । मिथ्यात्व से क्षायिकसम्यक्त्व नहीं होता, मात्र प्रथमोपशमसम्यक्त्व व क्षयोपशम सम्यक्त्व ही होते हैं। -जें. ग. 25-5-78/VI/ मुनि श्रुतसागरजी मोरेमावाले Jain Education International Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012009
Book TitleRatanchand Jain Mukhtar Vyaktitva aur Krutitva Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJawaharlal Shastri, Chetanprakash Patni
PublisherShivsagar Digambar Jain Granthamala Rajasthan
Publication Year1989
Total Pages918
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size20 MB
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