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________________ व्यक्तित्व और कृतित्व ] [ ३८१ के कारण गिरकर अधिक से अधिक अर्धपुद्गलपरिवर्तनकाल तक संसार में रहकर पश्चात् मोभ जाता है। इससे यह स्पष्ट हो जाता है कि यह सम्यक्त्व परिणाम में ही शक्ति है कि वह अनन्तसंसारकाल को छेदकर अर्धपद्गलपरिवर्तन संसारकाल कर देता है। . सम्यक्त्वोत्पत्ति की योग्यता का कथन गाथा ३०७ में है जो इस प्रकार है चदुगवि भवो सण्णी सुविसुद्धो जग्गमाण-पज्जत्तो। संसार-तडे णियडो गाणी पावेइ सम्मत्तं ॥ ३०७ ॥ ( स्वा० का०) अर्थ-चारोंगति का भव्यसंज्ञी-पर्याप्त-विशुद्धपरिणामी, जागता हुआ, ज्ञानीजीव संसारतट के निकट होनेपर सम्यक्त्व को प्राप्त करता है। इसकी संस्कृत टीका में पृ० २१६ पर 'संसार तट निकट' का अर्थ निम्न प्रकार किया है-- "संसारतटे निकटः सम्यक्त्वोत्पत्तितः उत्कृष्टेन अर्धपुद्गलपरिवर्तनकालपर्यन्तं संसारस्थायीत्यर्थः।" अर्थ संसारतट निकट' इसका अभिप्राय है कि सम्यक्त्वोत्पत्ति से उत्कृष्टसंसारस्थिति अर्धपुद्गलपरिवर्तनकालपर्यंत रह जाती है । ___ इससे भी स्पष्ट हो जाता है कि सम्यक्त्व हो जाने पर उत्कृष्ट संसारकाल अर्धपुद्गलपरिवर्तमानमात्र रह जाता है न कि सम्यक्त्वोत्पत्ति से पूर्व संसारकाल अर्धपुद्गलपरिवर्तमानमात्र रह जाता हो, क्योंकि सम्यक्त्वपरिणाम में ही यह शक्ति है कि अनन्तसंसारकाल को काटकर अर्धपुद्गलपरिवर्तनमात्र कर देता है । यह ही सम्यपत्व का वास्तविक महत्व है। इसी बात को श्री वीरसेनस्वामी षट्खंडागम की धवल टीका में कहते हैं "एगो मणावियमिच्छाविट्ठी अपरित्तसंसारो अधापवत्तकरणं अपुवकरणं अणियटिकरणामिदि एदाणि तिण्णि करणाणि कादूण सम्मत्तंगहदि पढमसमए चेव सम्मत्तगुरण पुग्विल्लो अपरित्तो संसारो ओहट्रिदूण परित्तो पोग्गल. परियट्टस्स अद्धमेत्तो होवूण उक्कस्सेण चिट्ठदि ।" ( धवल पु० ४ पृ० ३३५) अर्थ-एक अनादिमिथ्यादृष्टि अपरीत संसारी ( जिसका संसार बहुत शेष है ऐसा ) जीब, अधः प्रवृत्तकरण-अपूर्वकरण-अनिवृत्तिकरण, इन तीनों ही करणों को करके सम्यक्त्वग्रहण के प्रथमसमय में ही सम्यक्त्वगुण के द्वारा पूर्ववर्ती अपरीत ( दीर्घ ) संसारीपना हटाकर परीत ( निकट ) संसारी हो करके अधिक से अधिक पुद्गलपरिवर्तन के आधेकाल प्रमाण ही संसार में ठहरता है। इस पार्षवाक्य में यह स्पष्ट कर दिया है कि सम्यक्त्वग्रहण के प्रथमसमय में सम्यक्त्वगुण के द्वारा दीर्घसंसार को हटाकर अर्धपुद्गलपरिवर्तमानकाल करता है अर्थात् सम्यक्त्वोत्पत्ति से पूर्व उसका अर्धपुद्गलपरिवर्तन संसारकाल नहीं हुआ, किन्तु उसका अनन्तकाल था। इस बात को धवल पुस्तक पांच में भी स्पष्ट किया गया है, जो इस प्रकार है Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012009
Book TitleRatanchand Jain Mukhtar Vyaktitva aur Krutitva Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJawaharlal Shastri, Chetanprakash Patni
PublisherShivsagar Digambar Jain Granthamala Rajasthan
Publication Year1989
Total Pages918
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size20 MB
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