SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 424
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ ३८० ] [ पं० रतनचन्द जैन मुख्तार : हुई तो यह तीसरी काललब्धि पुनः समाप्त हो जाती है । इसप्रकार प्रत्येक पुद्गलपरावर्तनकाल के आधाकाल बीत जाने पर और शेष अर्द्ध पुद्गलपरावर्तनकाल रह जाने पर तीसरी काललब्धि आती रहती है । अर्द्ध पुद्गलपरावर्तनकाल शेष रहने पर, इसका इस प्रकार अर्थ करना क्या आर्ष विरुद्ध है ? यदि है तो उस आर्षग्रन्थ का प्रमाण क्या है ? सम्यग्दर्शन प्राप्त होने पर शेष संसारकाल अर्द्ध पुद्गलपरावर्तनमात्र रह जाता या संसारकाल अर्द्ध पुगलपरावर्तनमात्र रह जाने पर सम्यक्त्व की प्राप्ति होती है ? समाधान - सर्वार्थसिद्धि तथा राजवार्तिक अ० २ सू० ३ की टीका में "कालेऽर्द्ध' पुद्गल परिवर्तनाख्येऽवशिष्टे प्रथमसम्यक्त्वग्रहणस्य योग्यो भवति नाधिक इतीयं काललब्धिरेका ।" अर्थ - अर्द्ध पुद्गल परिवर्तनकाल अवशिष्ट रहने पर प्रथमसम्यक्त्व ग्रहण की योग्यता होती है । अधिककाल अवशिष्ट रहने पर योग्यता नहीं रहती, यह एक काललब्धि है । इसमें 'संसार' का शब्द नहीं है अतः 'संसारकाल अर्धपुद्गल परिवर्तन अवशिष्ट रहने पर ऐसा अर्थ किस आधार पर किया जाये ? यदि श्री अकलंकदेव तथा पूज्यपादस्वामी को यह अर्थ इष्ट होता तो वे 'संसार' शब्द का प्रयोग अवश्य करते, किन्तु उन्होंने 'संसार' शब्द का प्रयोग नहीं किया है इससे तो यह अर्थ हो सकता है कि प्रत्येक पुद्गल परिवर्तन काल में अर्धपुद्गलपरिवर्तनकाल अवशिष्ट रहने पर प्रथम सम्यक्त्व ग्रहण की योग्यता होती है ।" श्री स्वामीकार्तिकेयानुप्रेक्षा गाथा ३०८ की टीका पृ० २१७ पर भी 'कमंवेष्टितो मध्यजीवः अर्धपुगलपरिवर्तकाले उद्वरिते सति औपशमिकसम्यक्त्वग्रहणयोग्यो भवति । अर्धपुद्गलपरिवर्तनाधिके काले सति प्रथमसम्यक्त्व स्वीकारयोग्यो न स्यदित्यर्थः ।" अर्थ-कर्म से घिरे हुए भव्य जीव के अर्धपुद्गल परिवर्तनकाल शेष रहने पर औपशमिकसम्यक्त्व ग्रहण करने की योग्यता होती है । अर्धपुद्गलपरिवर्तन से अधिककाल होने पर प्रथमसम्यक्त्व स्वीकार करने की योग्यता नहीं होती । यहाँ पर भी 'संसार' शब्द नहीं है । अतः राजवार्तिक से इसमें कोई विशेषता नहीं है । यदि टीकाकार को 'अर्घपुद्गलपरिवर्तनसंसारकाल शेष रहने पर', ऐसा अर्थ इष्ट होता तो 'संसार' शब्द का प्रयोग अवश्य किया जाता, जैसा कि "तद्विविधपरिणामः उत्कृष्टतः अर्धपुद्गलावर्तकालं संसारे स्थित्वा पश्चात् मुक्ति गच्छतीत्यर्थः । " इस वाक्य में संसार शब्द का प्रयोग किया है । इस वाक्य का अभिप्राय यह है कि प्रथमसम्यक्त्व से मिध्यात्वउदय १. "अर्द्ध पुद्गल परिवर्तन काल शेष रहने पर"; इस वाक्यांश का उपर्युक्त अर्थ विचारणीय लगता है। वास्तव में तो सम्यक्त्व में अर्द्धपुद्गलपरिवर्तन माल संसार शेष रखने की सामर्थ्य होने से, जो सम्यक्त्व को अवश्य प्राप्त करने वाला है ऐसे सातिशयमिथ्यात्वी को भी यह कह दिया जाता है कि इसके अर्द्धपुद्गल परिवर्तनकाल शेष रहा है। क्योंकि निकट भविष्य [ अन्तर्मुहूर्त बाद ] में अवश्यम्भावी सम्यक्त्व की सामर्थ्य का वर्तमान मिथ्यात्व अवस्था में भी उपचार किया है । अथवा अनन्त संसार मिथ्यात्व अवस्था में सान्त हो जाता है, यह भी एक मत है । [ देखो-जैनगजट दिo 5-6-75/V1 / भूषणलाल की शंका का समाधान, जे. ग. दि० 14-8-69 एवं दि0 29-3-73 आदि ] Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012009
Book TitleRatanchand Jain Mukhtar Vyaktitva aur Krutitva Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJawaharlal Shastri, Chetanprakash Patni
PublisherShivsagar Digambar Jain Granthamala Rajasthan
Publication Year1989
Total Pages918
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size20 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy