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________________ [ पं० रतनचन्द जैन मुख्तार : "एक्केण अणा वियमिच्छादिट्टिणा तिष्णि करणाणि काढूण गहिवसम्मत्तपढमसमए सम्मत्तगुरोण अणंतो संसारो छिष्णो अधोग्गलपरियट्टमेत्तो कदो ।" पृ० ११, १२, १५, १६, १९ ) । ३८२ ] अर्थ-- एक अनादिमिथ्यादृष्टिजीव ने तीनोंकरण करके सम्यक्त्व ग्रहण करने के प्रथमसमय में सम्यक्त्वगुण के द्वारा अनन्तसंसार छेदकर अर्धपुद्गल परिवर्तनप्रमाण किया । इन वाक्यों से स्पष्ट हो जाता है कि सम्यग्दर्शन से पूर्वं अर्धपुद्गलपरिवर्तनकाल नहीं रहता, किन्तु अनन्तसंसारकाल रहता है जिसको सम्यक्त्वगुरण के द्वारा छेदकर अर्धपुद्गल परिवर्तनप्रमाण संसारकाल कर देता है । इसीलिये स्वामिकार्तिकेयानुप्रेक्षा गाथा ३०७ की संस्कृत टीका में 'संसारतटे निकटः' का अर्थ यह किया गया है कि सम्यक्त्वोत्पत्ति से संसार स्थिति अधिक से अधिक अर्धपुद्गल परिवर्तनकाल पर्यंत रह जाती है। - जै. ग. 3-9-64 / IX / जयप्रकाश (१) मोहनीय के तीन टुकड़े होने का कारण [ मतद्वय ] (२) अनंत संसार को सान्त करने का कारण [ मतद्वय ] (३) अर्द्ध पुद्गल० संसार का भी संयम द्वारा अल्प करना शंका- यह जीव सम्यग्दर्शन के बल पर अथवा उसके होने पर संसारस्थिति को अर्धपुद्गल परिवर्तनप्रमाण बना लेता है। जबकि कार्तिकेयानुप्रेक्षा आदि ग्रन्थों में स्पष्ट उल्लेख है कि संसारस्थिति अर्धपुद्गलपरिवर्तनप्रमाण संसारकाल शेष रह जाने पर इस जीव में सम्यग्दर्शन प्रकट होने की योग्यता उत्पन्न होती है अधिक में नहीं। इस विषय में क्या समझना चाहिए ? समाधान - श्रनादिमिथ्यादृष्टि के दर्शन मोहनीय की एकमात्र मिथ्यात्वप्रकृति की सत्ता होती है और संसार काल भी अपरीत ( अमर्यादित ) होता है । प्रथमोपशमसम्यग्दर्शन की उत्पत्ति के प्रथमसमय में मिथ्यात्वप्रकृति द्रव्य के तीन टुकड़े होकर दर्शन मोहनीयकर्म का सम्यक्त्वप्रकृति, सम्यग्मिथ्यात्वप्रकृति श्रौर मिथ्यात्वप्रकृति इन तीन प्रकृतिरूप सत्त्व हो जाता है, तथा अपरीत संसार ( अमर्यादित संसार ) काल कटकर मात्र अर्धपुद्गलपरिवर्तन रह जाता है । यह एक मत है । कहा भी है "ओहट्ट दूण मिच्छतं तिष्णि भागं करेदि सम्मत्तं मिच्छत्तं सम्मामिच्छत्तं ॥७॥ एदेण सुरोण मिच्छत्तपढमहिदि गालिय गालिय सम्मतं पडिवण्णपढमसमयप्पहूडि उवरिमकालम्मि जो वावारो सो परूविदो | तेण ओहट्ट - दूति उत्त खंडघादेण विणा मिच्छत्ताणुभागं घादिय सम्मत-सम्मामिच्छत्त अणुभागायारेण परिणामिय पढमसम्मत्तप्प डिवण्णपढमसमए चेव तिष्णि कम्मंसे उप्पादेवि । " ( धवल पु० ६ पृ० २३४ २३५ ) अर्थात् - मिथ्यात्वकी प्रथमस्थिति को गलाकर सम्यक्त्व को प्राप्त होने के प्रथम से लेकर उपरिमकाल में जो व्यापार ( कार्य विशेष ) होता है वह इसमें प्ररूपण किया गया है । 'अन्तरकरण करके' ऐसा कहने पर rishara के बिना मिथ्यात्वकर्म के अनुभाग को घातकर उसे सम्यक्त्वप्रकृति और सम्यग्मिथ्यात्वप्रकृति के अनुभागरूप आकार से परिणमाकर प्रथमोपशम सम्यक्त्व के प्राप्त होने के प्रथमसमय में ही मिथ्यात्वरूप एक कर्म के तीन कम ( खंड ) उत्पन्न करता है । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012009
Book TitleRatanchand Jain Mukhtar Vyaktitva aur Krutitva Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJawaharlal Shastri, Chetanprakash Patni
PublisherShivsagar Digambar Jain Granthamala Rajasthan
Publication Year1989
Total Pages918
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size20 MB
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