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________________ व्यक्तित्व और कृतित्व ] [ ३७९ अर्थ - अनन्त से असंख्यात में क्या भेद है ? एक-एक संख्या के घटाते जाने पर जो राशि समाप्त हो जाती है वह असंख्यात है और जो राशि समाप्त नहीं होती है वह अनन्त है । प्रश्न- यदि ऐसा है तो व्ययसहित होने से नाश को प्राप्त होनेवाला अर्धपुद्गलपरिवर्तनकाल भी असंख्यातरूप हो जायगा ? उत्तर-हो जाओ । प्रश्नतो फिर उस अर्धपुद्गल परिवर्तनरूप काल को अनन्त संज्ञा कैसे दी गई है ? उत्तर - नहीं, क्योंकि अर्धपुद्गलपरिवर्तनरूप काल को जो अनन्त संज्ञा दी गई है वह उपचार निमित्तक है । आगे उसी का स्पष्टीकरण करते हैं- अनन्तरूप केवलज्ञान का विषय होने से अर्धपुद्गल परिवर्तनकाल भी अनन्त है, ऐसा कहा जाता है। प्रश्न – सभी संख्या केवलज्ञान का विषय हैं अतः उनमें कोई विशेषता न होने से सभी संख्यात्रों को अनन्तत्व प्राप्त हो जायगा ? उत्तर - नहीं, क्योंकि जो संख्याएँ अवधिज्ञान का विषय हो सकती हैं उनसे अतिरिक्त ऊपर की संख्याएँ केवलज्ञान को छोड़कर दूसरे अन्य किसी ज्ञान का भी विषय नहीं हो सकती हैं, अतएव ऐसी संख्याओं में अनन्तत्व के उपचार की प्रवृत्ति हो जाती है । अथवा जो संख्या पाँचों इन्द्रियों का विषय है वह संख्यात है । उसके ऊपर जो संख्या अवधिज्ञान का विषय है वह असंख्यात । उसके ऊपर जो संख्या केवलज्ञान के विषयभाव को ही प्राप्त होती है वह अनन्त है । जावदियं पञ्चवखं जुगवं सुदओहिकेवलाण हवे | तावदियं संखेज्जमसंखमणतंकमा जाये ॥ ५२ ॥ ( त्रिलोकसार ) युगपत् प्रत्यक्ष प्रतिभासनेरूप विषय श्रुतज्ञान का संख्यात है, अवधिज्ञान का प्रत्यक्ष प्रतिभासनेरूप विषय असंख्यात है और केवलज्ञान का विषय अनन्त है । इससे स्पष्ट है कि पुद्गल परिवर्तन आदि पंचपरिवर्तनरूप वास्तविक काल है । "श्रर्द्ध पुद्गलपरावर्तन शेष रहने पर" का अर्थ , शंका- श्री मुनिसंघ में सर्वार्थसिद्धि और राजवार्तिक के आधार पर निम्न चर्चा चली है— अध्याय २ सूत्र ३ की टीका में काललब्धि के प्रकरण में बतलाया है कि जिस जीव के १. कर्मस्थिति अन्तःकोटाकोटी हो, २. संज्ञी पंचेन्द्रियपर्याप्त विशुद्धपरिणामवाला हो, ३. अर्द्ध पुद्गलपरावर्तनकाल शेष रह गया हो । उस जीव के प्रथम सम्यक्त्व ग्रहण करने की योग्यता होती है । Jain Education International - जै. ग. 29-5-69/VI / ब्र.......... इनमें प्रथम काललब्धि अर्थात् 'अन्तःकोटाकोटी प्रमाण कर्मस्थिति' अनेक बार हो सकती है । इसीप्रकार द्वितीयकाललब्धि 'संज्ञीपंचेन्द्रियपर्याप्त विशुद्धपरिणाम' भी अनेक बार हो सकते हैं । इसीप्रकार तीसरीकाललब्धि 'अर्द्ध पुगलपरावर्तनकाल शेष रहना' भी अनेक बार होता है। इसका खुलासा इस प्रकार है-एक पुद्गलपरावर्तनकाल में से आधाकाल बीत जाने के पश्चात् उस पुद्गलपरावर्तन का जब अर्द्ध पुद्गलपरावर्तनकाल शेष रह जाता है तब उस जीव को तीसरी काललब्धि प्रारम्भ होती है । यदि इस अर्द्ध बुद्गलपरावर्तनकाल में सम्यक्त्वोस्पति नहीं हुई तो यह काललब्धि समाप्त हो जाती है। दूसरा पुद्गलपरावर्तन कालप्रारम्भ होता है इस दूसरे पुद्गलपरावर्तकाल में से जब आधाकाल बीत जाता है और अर्द्ध पुद्गलपरावर्तनकाल शेष रहता है तब इस जीव के पुनः तीसरी कालब्धि का प्रारम्भ होता है । यदि इस अर्द्ध पुद्गलपरावर्तनकाल में भी सम्यक्त्वोत्पत्ति नहीं For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012009
Book TitleRatanchand Jain Mukhtar Vyaktitva aur Krutitva Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJawaharlal Shastri, Chetanprakash Patni
PublisherShivsagar Digambar Jain Granthamala Rajasthan
Publication Year1989
Total Pages918
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size20 MB
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