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________________ ३७८ ] [पं. रतनचन्द जैन मुख्तार: काल अपने समयों की संख्या की अपेक्षा मध्यम अनन्तानन्तस्वरूप है। यह काल अवधिज्ञान तथा मनःपर्ययज्ञान के विषय से बाहर है। यह मात्र केवलज्ञान का विषय होने से भी "अनन्त" कहलाता है। ( त्रिलोकसार ) यह औपचारिक अनन्त है, क्योंकि इसकी समाप्ति देखी जाती है। आय बिना मात्र व्यय होने पर भी जो संख्या समाप्ति को प्राप्त न हो वह वास्तविक अनन्त है-अक्षय अनन्त है। -पत्राचार 17-2-80/ ज ला. जैन, भीण्डर (१) पुद्गल परिवर्तन का काल वास्तविक है (२) अर्द्ध पुद्गलपरिवर्तन काल कथंचित् असंख्यातरूप है, कथंचित् अनंतरूप शंका-पंचपरावर्तन का पृथक-पृथक् जो काल बताया गया है और एक से दूसरे का काल अनन्तगुणा कहा है। यह सब अतीतकाल की विशालता प्रगट करने के लिये कि मैं कितने अथवा कितने लम्बे काल से भ्रमण कर रहा है, इसका अज्ञानी जीव को परिज्ञान कराने के लिये उपदेश है या वास्तव में कुछ जेयपदार्थ है जो केवलज्ञान का विषय बना है। इस पर चर्चा होते-होते यहां तक सहमत हये कि यदि भगवान के ज्ञान का ज्ञेय है तो छपस्थ जीवों के विकल्परूप तो हो सकता है । इसके अतिरिक्त यह स्वयं ज्ञेय है, यह निर्णय नहीं हो सका। इस पर आगमप्रमाण क्या है ? समाधान-पंचपरावर्तन का पृथक पृथककाल आर्ष ग्रन्थों में कहा गया है वह दिव्यध्वनि अर्थात जिनवाणी अनुसार कहा गया है। यद्यपि यह काल अक्षयअनन्त नहीं तथापि इसको संख्या इतनी अधिक है कि जो अवधिज्ञान. मन:पर्ययज्ञान के विषय से बाहर है। अनन्तज्ञान का विषय होने से इन पंचपरिवर्तन कालों को अनन्त कहा है। पूदगलपरिवर्तनकालमात्र काल्पनिक नहीं है, क्योंकि सम्यग्दर्शन उत्पन्न होने पर संसारपरिभ्रमणकाल अर्धपुदगलपरिवर्तन रह जाता है। श्री वीरसेन आचार्य ने कहा भी है "अद्ध पुद्गलपरिवर्तनकाला सक्षयोऽप्यनंत: छपस्थैरनुपलब्धपर्यन्तस्वात् । केवलमनन्तस्तद्विषयत्वाद्वा। जीवराशिस्तु पुनः संख्येयराशिक्षयोऽपि निर्मूलप्रलयाभावादनन्त इति । ( धवल पु० १ पृ० ३९३ ) अर्थ- अर्धपुद्गलपरिवर्तनकाल क्षय सहित होते हुए भी इस लिये अनन्त है कि छद्मस्थ जीवों के द्वारा उसका अन्त नहीं पाया जाता है, किन्तु केवलज्ञान वास्तव में अनन्त है अथवा अनन्त को विषय करनेवाला होने से वह अनन्त है । संख्यातराशि के क्षय हो जाने पर भी जीवराशि का निर्मूल नाश नहीं होता, इसलिये अनन्त है। "किमसंखेज्ज णाम ? जो रासी एगेगरूवे अवणिज्जमारणे णिटादि सो असंखेज्जो । जो पुण ण समप्पा सो शासी अणंतो। जदि एवं तो वयसहिनसक्खयअद्धपोग्गलपरियट्टकालो वि असंखेज्जो जायदे ? हो जाम । कधं पृणो तस्स अद्धपोग्गलपरियट्रस्स अणंतववएसो ? इदि चे ण, तस्स उवयारणिबंधणत्तादो। तं जहाअणंतस्स केवलणाणस्स विसयत्तादो अद्धपोग्गलपरियट्रकालो वि अणंतो होदि । केवलणाणविसयत्तं पडिविसेसाभावादो सव्वसंखाणाणमणंतसणं जायदे? चे ण, ओहिणाणविसयवदिरित्तसंखाणे अणण्णविसयत्तरगेण तवयारपवृत्तीदो। अहवा जं संखाणं पंचवियविसओ तं संखेज्जंणाम । तदो उवरि जमोहिणाणविसओ तमसंखेज्जं णाम तदो उवरि जं केवलणाणस्सेव विसओतमणतं णाम ।' ( धवल पु० ३ पृ० २६७.२६८ ) Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012009
Book TitleRatanchand Jain Mukhtar Vyaktitva aur Krutitva Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJawaharlal Shastri, Chetanprakash Patni
PublisherShivsagar Digambar Jain Granthamala Rajasthan
Publication Year1989
Total Pages918
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size20 MB
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