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________________ व्यक्तित्व और कृतित्व ] [ ३३६ प्रायोग्यलब्धि के पश्चात् करणलब्धि होती है उसके पश्चात् प्रथमोपशमसम्यक्त्व उत्पन्न होता है । इन पाँच लब्धियों के बिना प्रथमोपशमसम्यक्त्व उत्पन्न नहीं होता है । - जै. ग. 12-8-71 / VII / रो. ला. मित्तल प्रथमसम्यक्त्व से पूर्व ज्ञान व प्रशस्त भाचरण आवश्यक है शंका-क्या दर्शन के सम्यक् बनने में ज्ञान व चारित्र भी कारण हैं ? समाधान - प्रथमोपशमसम्यक्त्व से पूर्व पांचलब्धियाँ होती हैं । उनमें से दूसरी विशुद्धिलब्धि है जो पाप प्रवृत्ति में सम्भव नहीं है । तीसरी देशनालब्धि है जो तत्वों व द्रव्यों के प्रयथार्थज्ञान में सम्भव नहीं है । अतः ये दोनों लब्धियाँ प्रशस्त प्राचरण व ज्ञान की द्योतक हैं। इन दोनों लब्धियों के बिना प्रथमोपशमसम्यक्त्व उत्पन्न नहीं हो सकता है । अतः प्रथमोपशमसम्यक्त्वोत्पत्ति में विशुद्धिलब्धि ( प्रशस्त आचरण ) तथा देशनालब्धि ( प्रशस्तज्ञान) कारण है । agrदिमिच्छो सort पुग्णो गन्भज विसुद्ध सागारो । पढमुबसमं स गिव्ह दि पंचमवरलद्धिचरिमम्हि || २ || ( लब्धिसार ) ari गतियों का मिध्यादृष्टि संज्ञी पर्याप्त, विशुद्ध और ज्ञानोपयोग वाला पंचमलब्धि का अन्त होते ही प्रथमोपशमसम्यक्त्व को ग्रहण करता है । यहाँ पर विशुद्ध और ज्ञानोपयोग ये दो विशेषण दिये गये हैं। इनका स्वरूप इस प्रकार है आविमलद्विभवो जो भावो जीवस्स सादपहुबीणं । सस्थाणं पयडीणं बंघणजोगो विसुद्धलद्धी सो ॥ ५ ॥ ( लब्धिसार ) Jain Education International पहली क्षयोपशमलब्धि से उत्पन्न हुआ जो साता आदि प्रशस्तप्रकृतियों के बंधने का कारणभूत शुभपरिणाम, उस शुभपरिणाम की प्राप्ति विशुद्धिलब्धि है । शुभपरिणाम प्रशस्तआचरण का अविनाभावी है । अतः यह विशुद्धलब्धि प्रशस्त आचरण की द्योतक है । छम्बणवपयत्वोपदेसयर सूरि पहुदिलाहो जो । तेसिदपवत्वधारण लाहो वा तरियलद्वी दु ॥ ६ ॥ ( लब्धिसार ) छद्रव्य और नौपदार्थ के उपदेश करनेवाले प्राचार्य आदि का लाभ अर्थात् उपदेश मिलना तथा उपदेशित पदार्थों के यथार्थं स्वरूप धारण करने की प्राप्ति वह तीसरी देशनालब्धि है । इस प्रकार प्रथमोपशम सम्यग्दर्शन से पूर्व प्रशस्तआचरण व ज्ञान आवश्यक है । - जै. ग. 26-10-72 / VII / टो. ला मित्तल For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012009
Book TitleRatanchand Jain Mukhtar Vyaktitva aur Krutitva Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJawaharlal Shastri, Chetanprakash Patni
PublisherShivsagar Digambar Jain Granthamala Rajasthan
Publication Year1989
Total Pages918
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size20 MB
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