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________________ [ पं० रतनचन्द जैन मुख्तार । "सव्वकम्माणमुक्कस्स ट्रिट्ठवि मुक्कस्सा भागं च धाविय अंतोकोडाकोडीदिट्ठविम्हि वेट्ठाणा भागे च अवटठाणं पाओग्गलद्धी णाम ।" ३३८ ] सबकर्मों को उत्कृष्टस्थिति को और पापकर्मों के उत्कृष्ट अनुभाग को घात करके अन्त कोड़ाकोड़ी स्थिति में और द्वि: स्थानीय अनुभाग में प्रवस्थान करने को प्रायोग्यलब्धि कहते हैं । कर्मों के स्थितिबंध के घटने को बंधापसरण कहते हैं । प्रत्येक बंधापसररण में स्थितिबंध पृथक्त्व सोसागर घटता है। एक बंधापसरण का काल अन्तर्मुहूर्त है । प्रायोग्यलब्धि में ३४ बंधापसरण होते हैं । तत्तो उदय सदस् य पुधत्तमेत्त पुणो पुणोदरिय । बंधम्मि पर्याडम्हि य छेदपदा होंति चोत्तीसा ॥ १० ॥ ( लब्धिसार ) अंतःकोड़ाकोड़ीसागर स्थितिबंध से पृथक्त्व सोसागर घटने पर पहला बंधापसरण होता है। उससे भी पृथक्त्वसीसागर घटने पर दूसरा बंधापसरण होता है । इस तरह इसी क्रम से प्रथक्त्वसौसागर - प्रथक्त्वसौसागर स्थितिबंध घटने पर एक-एक बन्धापसरण होता है । ऐसे ३४ बंधापसरण होते हैं । यद्यपि इन ३४ बंधापसरणों के द्वारा नरकायु आदि ४६ प्रकृतियों का बंध रुक जाता है तथापि परिणामों में इतनी विशुद्धता नहीं हुई और न मिथ्यात्व का अनुभाग इतना क्षीण हुआ कि मिथ्यात्व प्रकृति का बध प्रायोग्यलब्धि में रुक जावे । श्रनिवृत्तिकरणलब्धि के अन्तिम समय तक मिथ्यात्व का बंध होता रहता है । प्रथमोपशमसम्यक्त्व होने पर मिथ्यात्व का उदय व बंध दोनों एक साथ रुक जाते हैं । - . ग. 18-3-71 / VII / रो. ला. मित्तल सम्यक्त्व - सम्मुख जीव की योग्यता का परिचय शंका- सम्यक्त्व की प्राप्ति के सम्मुख जीव की योग्यता कैसी होती है ? जब तक कर्मस्थिति को घटाकर अन्तःकोटा कोटिसागरप्रमाण तथा अनुभाग को घटाकर द्विस्थानिक नहीं कर देता क्या उस समय तक सम्यक्त्वोस्पत्ति नहीं होती ? समाधान - प्रथमोपशमसम्यक्त्व उत्पन्न होने से पूर्व क्षयोपशमादि पाँच लब्धियाँ होती हैं उनमें से चौथी प्रायोग्यलब्धि है, जिसका स्वरूप इस प्रकार है Jain Education International अंतोकोडाकोडी विट्ठाले ठिदिरसाण जं करणं । पाउग्गलद्विणामा भग्वामध्येसु सामाणा ॥ ७ ॥ ( लब्धिसार ) पूर्वोक्त क्षयोपशमलब्धि, विशुद्धिलब्धि, देशनालब्धिवाले जीव के द्वारा प्रतिसमय विशुद्धता की बढ़वारी होने से आयु के बिना सातकमों की स्थिति घटाते हुए अंतः कोड़ाकोड़ी मात्र रखना और कर्मफलदान शक्ति को भी कमजोर करते हुए अनुभाग को द्विस्थानीय अर्थात् लता, दारुरूप कर देना सो प्रायोग्यलब्धि है । कर्मों का स्थिति व अनुभाग परिणामों की विशुद्धता द्वारा घटाया जाता है । इसी प्रकार आत्मपरिणामों के द्वारा अनन्तसंसार घटाकर अर्धपुद्गलपरिवर्तनमात्र कर दिया जाता है । For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012009
Book TitleRatanchand Jain Mukhtar Vyaktitva aur Krutitva Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJawaharlal Shastri, Chetanprakash Patni
PublisherShivsagar Digambar Jain Granthamala Rajasthan
Publication Year1989
Total Pages918
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size20 MB
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