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________________ ३४० ] [ पं० रतनचन्द जैन मुख्तार । करण परिणाम कब होते हैं ? शंका-सम्यक्त्व की उत्पत्ति से पहले अधःकरण, अपूर्वकरण, अनिवृत्तिकरण ये तीन परिणाम होते हैं। ये परिणाम क्या व्यवहारसम्यक्त्व को उत्पत्ति से पहले होते हैं या निश्चयसम्यक्त्व की उत्पत्ति से पहले होते हैं? क्या उपशमसम्यक्त्व की उत्पत्ति से पहले होते हैं ? क्या क्षयोपशमसम्यक्त्व की उत्पत्ति से पहले होते हैं? क्या शायिकसम्यक्त्व की उत्पत्ति से पहले होते हैं? क्या आज्ञा मार्ग आदि सम्यक्त्व की उत्पत्ति के पहले होते हैं ? क्या सब ही सम्यक्त्व की उत्पत्ति से पहले होते हैं ? समाधान-प्रथःकरण, अपूर्वकरण और अनिवृत्तिकरण ये तीनों परिणाम प्रथमोपशमसम्यक्त्व की उत्पत्ति से पहले होते हैं। क्षयोपशमसम्यग्दृष्टिजीव जब द्वितीयोपशमसम्यक्त्व को प्राप्त होता है उस समय भी ये तीनों कर दितीयोपशमसम्यक्त्व तथा क्षायिकसम्यक्त्व से पहले होते हैं। क्षयोपशमसम्यक्त्व से पहले ये तीनों करण नहीं होते। इन तीनों करणों का कथन करणानुयोग की अपेक्षा से है । करणानुयोग की अपेक्षा से निश्चयसम्यक्त्व तथा व्यवहारसम्यक्त्व ऐसे दो भेद अथवा आज्ञा-मार्ग आदिक दस भेद सम्यक्त्व के नहीं कहे गए हैं। करणानुयोग में तो मनमोहनीयकर्म के उपशम से उपशमसम्यक्त्व की, क्षय से क्षायिक सम्यक्त्व की तथा क्षयोपशम से क्षयोपशमसम्यक्त्व की उत्पत्ति होती है। दर्शनमाहनीयकर्म का उपशम, क्षयोपशम तथा क्षय कारण है और उपशम, क्षयोपशम तथा क्षायिकसम्यक्त्व की उत्पत्ति कार्य है । दर्शनमोह के उपशम तथा क्षय में अधःकरण आदि तीन करण कारण ध्यानयोग में निश्चय व व्यवहारसम्यक्त्व का कथन है व्यवहारसम्यक्त्व कारण है और निश्चयसम्यक्त्व कार्य है। जिस प्रकार तीन करणों के बिना दर्शनमोह का उपशम तथा क्षय नहीं होता उसी प्रकार व्यवहारसम्यक्त्व के बिना निश्चयसम्यक्त्व नहीं होता। जिस प्रकार तीनों करण क्रमशः पहले होते हैं तत्पश्चात् उपशम अथवा क्षायिकसम्यक्त्व होता है, उसी प्रकार निश्चयसम्यक्त्व से पूर्व व्यवहारसम्यक्त्व होता है । जिस प्रकार उपशम या क्षायिकसम्यक्त्व के पश्चात् तीनों करण नहीं होते, उसी प्रकार निश्चयसम्यक्त्व के पश्चात् व्यवहारसम्यक्त्व नहीं होता। कार्य से पूर्व कारण होता है, कार्य के पश्चात् कारण नहीं होता। पंचलब्धिरूप परिणाम तो व्यवहारसम्यक्त्व हैं और उपशम. क्षयोपशम तथा क्षायिकसम्यक्त्व निश्चयसम्यक्त्व हैं, ऐसा द्रव्यानुयोग और करणानुयोग का समन्वय हो सकता है । सम्यक्त्व के जो आज्ञादि दस भेद किये हैं उनमें से 'प्राज्ञा आदि' आठ भेद तो बाह्य कारणों की अपेक्षा से हैं और अवगाढव परम अवगाढ़रूप सम्यक्त्व के भेद, ज्ञान की अपेक्षा से हैं । सम्यक्त्व के वास्तविक तीन भेद हैंअपशम क्षयोपशम और क्षायिक-क्योंकि दर्शनमोहनीयकर्म की ये तीन अवस्था होती हैं। दर्शनमोहनीयकर्म की जदय उदीरणा मादि अवस्था सम्यक्त्व की उत्पत्ति में कारण नहीं हैं। . -. सं. 17-1-57/VI/ सौ. प. का. डबका दर्शनमोह के उपशमाने का काल बन्धसमय से अचलावली बीत जाने पर ही नवीन बंधे हुए कर्म को उपशमाता है। उपशमाने में एक आवली लगती है अत: अन्तरकृत होने के पश्चात् जो नवीनकर्म बंधता है उसकी उपशमना बन्ध समय सहित दो मावली में पूर्ण होती है अर्थात् बन्ध समय को छोड़कर एक समय कम दो आवली में उपशमना पूरी होती है। प्रतः प्रथमस्थिति की अन्तिम दो प्रावलियों में जो नवीन मिथ्यात्वकर्म बँधा है उसको उपशमाने में दो आवली नगी अर्थात प्रथमस्थिति के अन्तिमसमय में जो मिथ्यात्वकर्म बँधा है उसके उपशमाने में भी अन्तिम समय सहित दो आवली अथवा प्रथमस्थिति के पश्चात् एकसमय कम दो आवली उसके उपशमाने में लगेगी। अब गाथा Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012009
Book TitleRatanchand Jain Mukhtar Vyaktitva aur Krutitva Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJawaharlal Shastri, Chetanprakash Patni
PublisherShivsagar Digambar Jain Granthamala Rajasthan
Publication Year1989
Total Pages918
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size20 MB
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