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________________ [ पं० रतनचन्द जैन मुख्तार : समाधान - सकायिक सामान्य अर्थात् यसकायिकपर्याप्त और अपर्याप्त दोनों का मिलकर उत्कृष्टकाल पूर्वकोटिपृथक्त्व से अधिक दो हजार सागर है, किन्तु त्रसकायिक पर्याप्तकों का उत्कृष्टकाल दो हजार सागर है। [ धवल पु० ७ पृ० १५० सूत्र ९२ ] । त्रसकायिक लब्ध्यपर्याप्तकों के चक्षुदर्शनोपयोग उसी भव में संभव नहीं है, अतः चक्षुदर्शनी का जीवों में लब्ध्यपर्याप्तक जीवों का ग्रहण नहीं किया गया और त्रसपर्याप्तकों के उत्कृष्ट काल की अपेक्षा चक्षुदर्शनी जीवों का उत्कृष्टकाल दोहजारसागरोपम कहा है । धवल पु० ४ पृ० ४५४ सूत्र २७८ की टीका । - जै. ग. 15-8-66 / 1X / र. ला. जैन, मेरठ ३१२ ] चक्षुदर्शनो निवृत्त्यपर्याप्तकों का काल शंका- धवल पु० ७ पृ० १७२ सूत्र १७० की टीका में कहा है 'चक्षुदर्शनी अपर्याप्तकों में क्षुद्रभव ग्रहण मात्र जघन्य काल नहीं पाया जाता' जब चतुरिन्द्रिय अपर्याप्तकों का काल क्षुद्रभव है तो चक्षुदर्शनी अपर्याप्तकों का जघन्यकाल क्षुद्रभव क्यों नहीं कहा गया ? समाधान —— चतुरिन्द्रिय अपर्याप्तक जीव दो प्रकार के हैं १. लब्ध्यपर्याप्तक, २. निवृत्त्यपर्याप्तक । लब्ध्यपर्याप्तकों की उस भव में पर्याप्तियाँ पूर्ण नहीं होतीं, अतः उनको अपर्याप्तक कहा गया है । यद्यपि इनका जघन्यकाल क्षुद्रभव है तथापि इनको चक्षुदर्शनी में भी ग्रहण नहीं किया गया है, क्योंकि इनके उसी भव में चक्षुदर्शनोपयोग सम्भव नहीं है । निवृत्त्यपर्याप्तकों का जघन्यकाल अन्तर्मुहूर्त है । इनके उस भव में नियम से पर्याप्तियाँ पूर्ण होंगी और चक्षुदर्शनोपयोग भी होगा । यद्यपि निवृत्यपर्याप्त जीवों के पर्याप्तनामकर्म का उदय है और इनको पर्याप्तकों में ही ग्रहण किया गया है तथापि जब तक पर्याप्तियाँ पूर्ण नहीं होतीं उस समय तक ये जीव अपर्याप्त ( निवृत्यपर्याप्त ) हैं और इनकी अपेक्षा से चक्षुदर्शनी अपर्याप्तकों का जघन्यकाल क्षुद्रभव न रहकर अन्तर्मुहूर्त कहा है । धवल पु० ४ पृ० ४५४ । - जै. ग. 15-8-66 / 1X / र. ला. जैन, मेरठ सभी दर्शनों की स्व में ही प्रवृत्ति होती है। शंका- धवलाकार ने ज्ञान का कार्य पर को जानना कहा है और दर्शन का कार्य स्व को जानना कहा है, किन्तु दर्शन के चार भेद भी कहे हैं - १. चक्षुदर्शन, २. अचक्षुवर्शन, ३. अवधिदर्शन, ४. केवलदर्शन । इन सबका विषय परपदार्थ कहा है । जैसे अवधिदर्शन का विषय परमाणु से लेकर महास्कंध तक सब ही मूर्तिक पदार्थ बतलाये हैं तो फिर स्व को ग्रहण करने वाली बात कैसे ? समाधान- इसप्रकार की शंका धवल पुस्तक ७ पृ० १०० पर उठाई गई है । वहाँ उसका समाधान इसप्रकार किया है— "जो चक्षुओं को प्रकाशित होता है दिखता है अथवा आँख द्वारा देखा जाता है वह चक्षु दर्शन है ।" ऐसा जो आगम में कहा गया है उसका अर्थ यह समझना चाहिये कि क्षु इन्द्रिय ज्ञान से पूर्व ही जो सामान्यस्वशक्ति का अनुभव होता है और जो कि चक्षुज्ञान की उत्पत्ति में निमित्तरूप है वह चक्षुदर्शन है । प्रश्न - उस चक्षुइन्द्रिय के विषय से प्रतिबद्ध अंतरंग शक्ति में चक्षु इन्द्रिय की प्रवृत्ति कैसे हो सकती है ? Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012009
Book TitleRatanchand Jain Mukhtar Vyaktitva aur Krutitva Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJawaharlal Shastri, Chetanprakash Patni
PublisherShivsagar Digambar Jain Granthamala Rajasthan
Publication Year1989
Total Pages918
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size20 MB
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