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________________ व्यक्तित्व और कृतित्व ] उत्तर-नहीं, यथार्थ में तो चक्षइन्द्रिय की अन्तरंग में ही प्रवृत्ति होती है, किन्तु बालकजनों को ज्ञान कराने के लिये अंतरंग में बहिरंग पदार्थों के उपचार से चक्षुओं को जो दिखता है वही चक्षुदर्शन है, ऐसा प्ररूपण किया गया है। प्रश्न-गाथा में तो 'चक्खूण जं पयासदि दिस्सदि तं चक्खुदंसणंति' ऐसा कहा गया है फिर आप सीधा अर्थ क्यों नहीं करते? उत्तर-सीधा अर्थ नहीं करते, क्योंकि वैसा अर्थ करने में अनेकों दोषों का प्रसंग आता है। चक्षइन्द्रिय को छोड़कर शेष इन्द्रियज्ञानों की उत्पत्ति से पूर्व ही अपने विषय में प्रतिबद्ध स्वशक्ति का अचक्षुज्ञान की उत्पत्ति का निमित्तभूत जो सामान्य से संवेद या अनुभव होता है वह अचक्षुदर्शन है, ऐसा कहा गया है। "परमाणु से लेकर अन्तिम स्कंधपर्यंत जितने मूर्तिकद्रव्य हैं उन्हें जिसके द्वारा साक्षात् देखता है या जानता है वह अवधिदर्शन है।" ऐसा जो आगम में कहा गया है उसका अर्थ ऐसा जानना चाहिये कि परमाणु से लेकर अन्तिमस्कंधपर्यंत जो पुद्गलद्रव्य स्थित है उनके प्रत्यक्षज्ञान से पूर्व ही जो अवधिज्ञान की उत्पत्ति का निमित्तभूत स्वशक्ति विषयक उपयोग होता है वही अवधिदर्शन है, ऐसा ग्रहण करना चाहिये । अन्यथा ज्ञान और दर्शन में कोई भेद नहीं रहेगा। [ धवल पु० ७ पृ० १०१ व १०२ ] यद्यपि आगम में इस प्रकार की गाथा है जिनमें दर्शन का विषय बाह्यपदार्थ कहा गया है, किन्तु वीरसेन आचार्य ने यह कहा है कि इस प्रकार का कथन बालकजनों को ज्ञान कराने के लिए अंतरंग में बहिरंग पदार्थों का उपचार करके किया गया है। यदि दर्शन का विषय भी बाह्यपदार्थ मान लिया जावे तो ज्ञान और दर्शन दोनों का विषय बाह्यपदार्थ हो जाने से ज्ञान और दर्शन में कोई भेद नहीं रहेगा। -जें.ग. 8-8-66/VII/शा. ला. जैन चक्षुदर्शन-प्रचक्षुदर्शन के काल शंका-धवल पु० ७ पृ० १७३ सूत्र १७४ में अचक्षुदर्शन को अनादि-सान्त बतलाया है और सादि होने का निषेध किया है तब क्या चक्षुदर्शन और अचक्षुदर्शन दोनों साथ रह सकते हैं ? सत्र १७० की टीका में 'अचक्षुदर्शनसहित स्थित जीव के चक्षुदर्शनी होकर कम से कम अन्तर्मुहूर्त रहकर पुनः अचक्षुदर्शनी होने पर चक्षुदर्शन का अन्तर्मुहूर्तकाल प्राप्त हो जाता है । जो यह लिखा है उसका क्या अभिप्राय है ? समाधान-क्षयोपशम की अपेक्षा अचक्षदर्शन का काल अनादि-अनन्त अभव्यों के और अनादि-सान्त भव्यों के कहा है, क्योंकि क्षायिकदर्शन ( केवलदर्शन ) होने पर क्षयोपशमदर्शन नहीं रहता। अचक्षुदर्शन और चक्षुदर्शन दोनों का क्षयोपशम चतुरिन्द्रिय आदि जीवों के एक साथ होता है अतः चक्षुदर्शन और अचक्षुदर्शन दोनों दर्शन एक जीव में एक साथ रह सकते हैं । सूत्र १७० में अचक्षुदर्शन का एक जीव की अपेक्षा जघन्यकाल अन्तर्मुहूर्त कहा है । उस काल को सिद्ध करने के लिए लिखा है कि 'अचक्षुदर्शन सहित स्थित जीव' अर्थात् एकेन्द्रिय, द्वीन्द्रिय अथवा तीनइन्द्रिय जीव, Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012009
Book TitleRatanchand Jain Mukhtar Vyaktitva aur Krutitva Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJawaharlal Shastri, Chetanprakash Patni
PublisherShivsagar Digambar Jain Granthamala Rajasthan
Publication Year1989
Total Pages918
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size20 MB
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