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________________ व्यक्तित्व और कृतित्व ] [ ३११ यहाँ पर यह बताया गया है कि क्षायिकचारित्र क्षायिकपने से पूर्ण है । तथापि अघाती कर्मों को सर्वथा नष्ट करके मुक्तिरूप कार्य को उत्पन्न करने की अपेक्षा पूर्ण है । वह शक्ति चौदहवें गुणस्थान में समुच्छिन्नक्रियानिवृत्ति नामक चतुर्थ शुक्लध्यान से उत्पन्न होती है । कहा भी है-— जीवकाण्ड गाथा ६५ में चौदहवें गुरणस्थान के स्वरूप का कथन करते हुए सर्वप्रथम 'सेलेसि' शब्द का प्रयोग किया है। जिसका अर्थ है "शीलानां अष्टादशसहस्रसंख्यानां ऐश्यं ईश्वरत्वं स्वामित्वं सम्प्राप्तः ।" अर्थात् चौदहवें गुणस्थान में शील के १८ हजार भेद पूर्ण पलते हैं । इससे स्पष्ट है कि चारित्र की पूर्णता चौदहवें गुणस्थान में होती है । दर्शन मार्गरणा समुच्छिन्नस्यातो ध्यानस्याविनिवर्तिनः । साक्षात्संसार विच्छेदसमर्थस्य प्रसूतितः ॥ ८६ ॥ [ श्लो० वा० ] - पत्राचार 77-78 / ज ला. जैन, भीण्डर लब्ध्यपर्याप्तक चतुरिन्द्रियादि के चक्षुदर्शन नहीं है, पर श्रचक्षुदर्शन तो है शंका- जिसप्रकार लब्ध्यपर्याप्तक चतुरिन्द्रिय-पंचेन्द्रियजीवों के चक्षुदर्शन नहीं माना गया है, क्योंकि उनका क्षयोपशम चक्षुदर्शनोपयोगरूप नहीं होता, उसी प्रकार लब्ध्यपर्याप्तक चतुरिन्द्रिय-पंचेन्द्रिय जीवों के अचक्षुदर्शन नहीं माना जाना चाहिए, क्योंकि उनके अचक्षुदर्शन का क्षयोपशम भी अचक्षुदर्शनोपयोगरूप नहीं होता है ? समाधान — जिसप्रकार धवल पु० ३ पृ० ४५४ पर लब्ध्यपर्याप्तक चतुरिन्द्रिय-पंचेन्द्रिय जीवों के चक्षुदर्शन का निषेध किया गया है, उसप्रकार उन जीवों के अचक्षुदर्शन का निषेध करनेवाला कोई आगम वाक्य नहीं है । धवल पु० ३ में ऐसे जीवों की अचक्षुदर्शनियों में गणना की गई है । " आगमचक्खु साहु" अर्थात् साधु पुरुषों की चक्षु आगम है । ऐसा श्री कुंदकुंद आचार्य का वाक्य है अतः हमारा श्रद्धान श्रागम वाक्य अनुकूल होना चाहिये । "आगमोऽतर्कगोचरः” । आगम तर्क का विषय भी नहीं है । अतः धवल पु० ३ पृ० ४५४ के कथन को तर्क का विषय बनाना उचित नहीं है । Jain Education International - जै. ग. 22-4-76 / VIII / जे. एल. जैन चक्षुदर्शन का उत्कृष्ट काल शंका- धवल पु० ७ पृ० १७३ सूत्र १७१ की टीका में चक्षुदर्शनी का उत्कृष्टकाल २००० सागर बतलाया, किन्तु कायिक का उत्कृष्टकाल पूर्वकोटिपृथक्त्व अधिक २००० सागर है । तो चक्षुदर्शनी का भी उत्कृष्टकाल उतना ही क्यों नहीं हो सकता ? For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012009
Book TitleRatanchand Jain Mukhtar Vyaktitva aur Krutitva Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJawaharlal Shastri, Chetanprakash Patni
PublisherShivsagar Digambar Jain Granthamala Rajasthan
Publication Year1989
Total Pages918
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size20 MB
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