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________________ व्यक्तित्व और कृतित्व ] .. [२९७ चौड़ा एवं इतना ही ऊँचा ? क्योंकि घनाकार का मतलब तो "४५ लाख योजन ४४५ लाख योजन x सुमेरु पर्वत की ऊँचाई" होता है। धवल ९।६७ की द्विचरम पंक्ति में लिखा है कि ४५ लाख योजन धन प्रतर को जानता है। इससे क्या अभिप्राय है? लगता है कि गो० जी० गाथा ४५६ की संस्कृत टीका में लिखित वाक्य "मानुषोत्तरपर्वत के बाहर चारों कोणों में स्थित तिथंच अथवा देवों के द्वारा चिन्तितपदार्थ को भी मनःपर्ययज्ञानी जानता है;" गलत है। [ धवल पु० ९।६७-६८ को देखते हुए ] चारों कोणों की बात वहाँ है ही नहीं। शंकासार-(अ) मनःपर्ययज्ञान कितनी ऊंचाई तक जानता है। सुमेरुपर्वत की चोटी तक मनःपर्यय क्षेत्र है अथवा अन्य ? जयधवल १।१९ के विशेषार्य को देखते हुए तो चारणऋद्धिधारी मनःपर्ययज्ञानी मुनि ऊपर आकाश में गमन करते हुए फिर अपनी स्थिति से १ लाख योजन ऊंचाई के भीतर होने से प्रथम स्वर्गस्थ देवों की बातें भी जानने लगेंगे। (ब) जीवकाण्ड गा० ४५६ को संस्कृत टीका गलत है या सही ? (स) किसी जीव ने लोकान्त में स्थित पुदगल ( निगोव ) के बारे में विचार किया। तब क्या इतना तो मनःपर्ययज्ञानी कह देगा कि आपने लोकान्त की वस्तु ( निगोद ) के बारे में विचार किया है, पर वह मुझे प्रत्यक्ष नहीं है; अथवा विचार [ विचार्यमाणवस्तु का नाम ] भी नहीं कहेगा ? समाधान-गो० जी० गा० ४५६ की टीका ठीक नहीं है, गलत है। इसका विवक्षित अर्थांश इस प्रकार होना चाहिए-गा०४५५ के अन्त में णरलोयं है और गाथा ४५६ में य वयणं शब्द है। इनका परस्पर सम्बन्ध है. क्योंकि इनकी एक विभक्ति है। गाथा ४५६ में "णरलोए" में सप्तमी विभक्ति है। इसका सम्बन्ध 'ण' से है। 'णरलोयं य वयणं बट्टस्स विक्खंभ-णियामयं, ण णरलोए त्ति ।' अर्थात् नरलोक यह वचन विष्कम्भ (Diameter ) का नियामक है, न कि नरलोक के अन्दर का। तात्पर्य यह है कि गाया ४५५ में नरलोक शब्द नरलोक का नियामक नहीं है, किन्तु वृत्ताकार जो नरलोक है उसके व्यास का नियामक है, जो कि ४५ लाख योजन है। इसप्रकार ..४५ लाख योजन गाथा ४५६ का अर्थ धवला से विरुद्ध नहीं है। घन से अभिप्राय AR°x Height==/10x (७५ ला VIX२ ) x एक लाख योजन । नरलोक की ऊंचाई सुदर्शन मेरु है जो ६६ हजार ४० योजन है। सुदर्शनमेरु जड़ सहित १ लाख योजन+४० योजन (चूलिका)। किसी भी आगम में ऐसा कथन नहीं है कि मेरु की चोटी पर बैठा हुआ मनःपर्ययज्ञानी उससे ऊपर एक लाख योजन की बात जान लेगा । मात्र तर्क के आधार पर यह स्वीकार नहीं किया जा सकता। मनःपर्ययज्ञानी उसके क्षेत्र के अन्दर स्थित जीव के विचार को जान लेगा, किन्तु यदि वह चिन्तित पदार्थ क्षेत्र से बाहर है तो उस पदार्थ को नहीं जान सकेगा। -पवाधार 17-2-80/ ज. ला.जैन, भीण्डर Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012009
Book TitleRatanchand Jain Mukhtar Vyaktitva aur Krutitva Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJawaharlal Shastri, Chetanprakash Patni
PublisherShivsagar Digambar Jain Granthamala Rajasthan
Publication Year1989
Total Pages918
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size20 MB
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