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________________ २९८ ] [पं० रतनचन्द जैन मुख्तार : मनःपर्ययज्ञान का उत्कृष्ट विषय भी स्कन्ध है शंका--मनःपर्ययज्ञान का उत्कृष्ट विषय द्रव्य की अपेक्षा परमाणु से बड़ा है या छोटा है या बराबर है। समाधान-मनःपर्ययज्ञान का उत्कृष्टविषय स्कन्ध है, परमाणु नहीं है। कहा भी है "उत्कृष्टद्रव्य के ज्ञापनार्थ उसके योग्य असंख्यातकल्पों के समयों को शलाकारूप से स्थापित करके मनोद्रव्यवर्गणा के अनन्तवेंभाग का विरसनकर विस्रसोपचय रहित व पाठ कर्मों से सम्बद्ध अजघन्यानत्कृष्ट एक समयप्रबद्ध को समखण्ड करके देने पर उनमें एक खण्डद्रव्य का द्वितीय विकल्प होता है। इस समय शलाकाराशि में से एकरूप कम करना चाहिये। इसप्रकार इस विधान से शलाकाराशि समाप्त होने तक ले जाना चाहिए। इनमें अन्तिमद्रव्यविकल्प को उत्कृष्ट विपुलमतिमनःपर्ययज्ञान जानता है।” ( धवल पु० ९ पृ० ६७ ) "तस्यापि ऋजुमतिविषयस्यानन्तभागीकृतस्यान्त्यो भागो विपुलमतेविषयोऽनन्तस्यानन्तभेदत्वात् सङ्ख्येयासङ्खयेययोः सङ्खयेयासङ्खयेयभेदवत् । सोपि स्कंधो न परमाणुः ।" ( सुखाबोध टीका १/२४ ) यहां पर भी विपूलमतिमनःपर्ययज्ञान का विषय स्कंध ही बतलाया है। --. ग. 3-2-72/VI प्या. ला. विपुलमति मनःपर्ययज्ञान भी मतिज्ञानपूर्वक होता है शंका-क्या विपुलमति मनःपर्यय के पूर्व ईहामतिज्ञान नहीं होता है ? या ऋजु एवं विपुल दोनों मनःपर्ययज्ञान के पूर्व ईहामतिज्ञान होता है ? समाधान-ऋजुमति एवं विपुलमति दोनों ही ज्ञान मतिज्ञान पूर्वक होते हैं, क्योंकि मनःपर्ययदर्शन का कथन पागम में नहीं किया है। घवल की तेरहवीं तथा प्रथम पुस्तक में कहा भी है- "सुवमणपज्जव दंसणाणि किग्ण सुत्ते परूविदाणि ? ग तेसि मदिणाणपुव्वाणं दंसणपुव्वत्तविरोहादो।" [ ध० १३।३५६ ] अर्थ-सूत्र में श्रुतदर्शन तथा मनःपर्ययदर्शन क्यों नहीं कहे गये ? नहीं कहे गये, क्योंकि वे श्रुतज्ञान और मनःपर्ययज्ञान मतिज्ञानपूर्वक होते हैं, इसलिए उनको दर्शनपूर्वक मानने में विरोध पाता है। मनःपर्ययदर्शनं तहि वक्तव्यमिति चेन्न, मतिपूर्वकत्वात्तस्य दर्शनाभावात् । [ धवल० पु० १।३८५ ] अर्थ-मनःपर्ययदर्शन को भिन्नरूप से कहना चाहिये ? नहीं कहना चाहिए, क्योंकि मनःपर्ययज्ञान मतिज्ञानपूर्वक होता है। इसलिए मनःपर्ययदर्शन नहीं होता है । परमणसि ट्ठियम8 ईहामदिणा उजुट्टियं लहिय । पच्छा पच्चक्खेण य उजुमदिणा जाणदे णियमा । गो. जी. गाथा ४४७ । इस गाथा में यद्यपि ऋजुमतिमनःपर्ययज्ञान को ईहामतिज्ञान पूर्वक कहा है, तथापि देहली-दीपकन्याय से यह सिद्ध हो जाता है कि विपुलमतिमनःपर्ययज्ञान भी ईहामतिज्ञान पूर्वक होता है। यदि ऐसा न माना जाय तो Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012009
Book TitleRatanchand Jain Mukhtar Vyaktitva aur Krutitva Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJawaharlal Shastri, Chetanprakash Patni
PublisherShivsagar Digambar Jain Granthamala Rajasthan
Publication Year1989
Total Pages918
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size20 MB
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