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________________ २६६ ] [पं० रतनचन्द जैन मुख्तार । मनःपर्यय ज्ञानी मानुषोत्तर से बाहर कितना क्षेत्र जानता है ? शंका-एक मनःपर्ययज्ञानी ( उत्कृष्ट ) जो नरलोक के अन्तछोर पर वहां बैठा है जहाँ से एक सूत भर भी आगे नहीं बढ़ा जा सकता, क्योंकि उसके बाद मानुषोत्तर पर्वत आ जाता है अर्थात् चित्रानुसार वह 'T' बिन्दु नरक्षेत्र ४५ लाख यो. पर बैठा है तो वह ज्ञानी यहाँ से बाहर कितनी दूरी तक जान लेगा? अर्थात् नरलोक से बाहर कितनी दूरी तक जान लेगा? मेरे हिसाब से तो २२ लाख योजन बाहर तक जान लेगा। नरलोक की परिधि के किसी भी बिन्द पर बैठा व्यक्ति बाहर २२३ लाख योजन तक जान सकेगा, ऐसा मैं सोचता हूँ क्योंकि "४५ लाख योजन उत्कृष्ट क्षेत्र है।" न कि नरलोक । अर्थात् जहाँ मनःपर्ययज्ञानी बैठा है वहां उस मनःपर्ययज्ञानी को केन्द्र मानकर यदि २२३ लाख योजन अर्द्ध व्यास का चाप लेकर एक वृत्त बनाया जाय तो वह उस मनःपर्ययज्ञानी के ज्ञान का उत्कृष्ट क्षेत्र होगा ? क्या यह ठीक है ? समाधान-मनःपर्ययज्ञान के उत्कृष्ट क्षेत्र ४५००००० योजन के विषय में आपका कथन ठीक है। पतापार 1-3-80/ज. ला. जैन, भीण्डर मनःपर्यय का घनरूप क्षेत्र शंका-क्या मनःपर्ययज्ञान का उत्कृष्ट क्षेत्र घनरूप स्थापित करने पर "Vox (७५ लाख योजन )२ x १ ला. ४० योजन" प्रमाण होता है। जहाँकि ऊंचाई तो ऊपर जाने पर भी परिवर्तित नहीं होगी पर तिर्यकरूप से क्षेत्र भिन्न हो सकता है, जबकि मनःपर्ययज्ञानी सुमेरु से दूर होता जावे और मानुषोत्तरपर्वत की तरफ जाता जावे तब क्षेत्र नरलोक से बाहर की ओर बढ़ता जायेगा, क्या यह ठीक है ? ज.ध. पु. १ पृ. १९। ___समाधान-यह भी ठीक है, किन्तु ऊँचाई एक लाख योजन है न कि एक लाख ४० योजन । जम्बूद्वीप की चाई एक लाख योजन है। जहाँ यह मनःपर्ययज्ञानी है उसे केन्द्र मानकर २२३ लाख योजन अर्द्ध व्यास वाला गोला बनाने से मनःपर्ययज्ञानी का उत्कृष्ट क्षेत्र प्राप्त हो सकता है। -पदाचार 1-3-80/ज. ला. जैन, भीण्डर मनःपर्ययज्ञान का घनक्षेत्र का जो मेरी प्रस्तयमान शंका है, उसके कारण निम्नलिखित स्थल हैं-धवल ५०९/६८: ज.ध. १/१९; ध०१३/३४४ या २४४ तथा जीवकांड गाथा ४५६ । धवल प०९ पृ०६८, नीचे से तृतीय पंक्ति में "घनाकार से स्थापित करने पर", ऐसा शब्द आया है। सो घनाकाररूप स्थापित करने का क्या मतलब? क्या ऐसा अर्थ समझलें कि ४५ लाख योजन लम्बा, इतना ही Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012009
Book TitleRatanchand Jain Mukhtar Vyaktitva aur Krutitva Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJawaharlal Shastri, Chetanprakash Patni
PublisherShivsagar Digambar Jain Granthamala Rajasthan
Publication Year1989
Total Pages918
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size20 MB
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