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________________ व्यक्तित्व और कृतित्व ] [ २६५ अनन्तानन्त विस्रसोपचयों से सम्बन्ध रखने वाले श्रदारिकशरीर के एक समय में निर्जरा को प्राप्त होने वाले द्रव्य को जानता है और उत्कृष्टरूप से एक समय में होने वाले इन्द्रिय के निर्जरा द्रव्य को जानता है ।' पृ० ३३८ पर सूत्र ६७ की टीका में कहा है- ' जीवों की गति, प्रगति, भुक्त, कृत और प्रतिसेवित अर्थ को जानता है।' इस आगमप्रमाण से विदित होता है कि मन:पर्यय का विषय मात्र मनके विचार नहीं हैं, किन्तु वह पदार्थ भी है जिसका मन में विचार किया जा रहा है । - जै. ग. 16-4-64 / 1X / एस. के. जैन विपुलमतिमन:पर्ययज्ञानी उपशम श्रेणी नहीं चढ़ता शंका-क्या विपुलमतिमन:पर्ययज्ञानी उपशम श्रेणी मांड सकता है ? समाधान - विपुलमतिमन:पर्ययज्ञान वर्धमान चारित्र वाले के ही होता है जैसा कि श्री अकलंकदेव आचार्य ने तत्त्वार्थराजवार्तिक अध्याय १ सूत्र २४ की टीका में "स्वामिनो प्रवर्धमानचारित्रोदयत्वात्" शब्दों द्वारा कहा है । यदि विपुलमतिमन:पर्ययज्ञानी उपशम श्रेणी चढ़ता है तो ११ वे गुणस्थान से गिरते समय उसके हीयमानचारित्र का प्रसंग आ जाता है, किन्तु विपुलमतिमन:पर्ययज्ञानी के हीयमानचारित्र होता नहीं। इससे सिद्ध होता है कि विपुलमतिमन:पर्ययज्ञानी उपशमश्रेणी नहीं चढ़ता । ऋजुमतिमन:पर्ययज्ञानी ही उपशमश्रेणी चढ़ सकता है, क्योंकि वह प्रतिपाती भी है । - जै. ग. 5-1-78 / VIII / शा. ला. मन:पर्ययज्ञान शंका- ऋजुमतिमन:पर्ययज्ञान वाला जीव इस ज्ञानसहित क्षपक श्रेणी चढ़ सकता है या नहीं ? समाधान - जीव दो ज्ञान सहित ( मति, श्रुत), तीन ज्ञान सहित ( मति, श्रुत, अवधि या मति, श्रुत, मन:पर्ययज्ञान ) तथा चार ज्ञान सहित ( मति, श्रुत, अवधि व मन:पर्यय) क्षपक श्रेणी चढ़ सकता है (मोक्षशास्त्र अध्याय १० अन्तिम सूत्र की टीका ) मन:पर्ययज्ञान से विपुलमति मन:पर्ययज्ञान ग्रहण करना चाहिए, ऐसा नियम करने वाला कोई आगम वाक्य नहीं है । मन:पर्ययज्ञान से ऋजुमति व विपुलमति इन दोनों में से किसी एक का ग्रहण हो सकता है । अतः ऋजुमतिज्ञान सहित भी क्षपकश्रेणी चढ़ सकता इसमें युक्ति व आगम से कोई बाधा नहीं आती है । - जै. सं. 12-7-56 / VI / ब्रप जैन, इन्दौर Jain Education International शंका - मन:पर्यय ( ऋजुमति ) छूट जाने पर कितने भव संसार में और लेता है ? समाधान-ऋजुमति मन:पर्ययज्ञान के छूटने के पश्चात् उस भव से भी मोक्ष जा सकता है और उत्कृष्ट से पुद्गलपरावर्तन तक संसार में अनन्त भव धारण करके मोक्ष को जाता है । मध्य के अनन्ते विकल्प हैं । ष० ख० पु० ७ / २२०-२२१ खुद्दाबंध सूत्र १०५ देखना चाहिए। For Private & Personal Use Only -कौ. सं. 9-8- 56 / VI / ब्र. प. जैन, इन्दौर www.jainelibrary.org
SR No.012009
Book TitleRatanchand Jain Mukhtar Vyaktitva aur Krutitva Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJawaharlal Shastri, Chetanprakash Patni
PublisherShivsagar Digambar Jain Granthamala Rajasthan
Publication Year1989
Total Pages918
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size20 MB
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