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________________ [ पं० रतनचन्द जैन मुख्तार : २६४ ] समाधान - मिध्यादृष्टि तियंच व मनुष्यों में अवधिज्ञानावरणकर्म के क्षयोपशम से विभंग ज्ञान उत्पन्न होता है । यदि अवधिज्ञानी सम्यग्दृष्टितिर्यंच या मनुष्य सम्यक्त्व से च्युत हो जाय तो उसका अवधिज्ञान सम्यग्दर्शन के अभाव में विभंगज्ञान हो जायगा । इसका जघन्यकाल एकसमय और उत्कृष्टकाल अन्तर्मुहूर्त है । ध. पु. ९ पृ. ३९७ ॥ -- जै. ग. 2-3-72 / VI / क. च. जैन ज्ञानमार्गणा मन:पर्ययज्ञान मन:पर्यय के उत्पत्ति योग्य गुणस्थान शंका- मन:पर्ययज्ञान कौन से गुणस्थान में उत्पन्न होता है और किन गुणस्थानों में रहता है ? सभी संयमियों के मन:पर्ययज्ञान क्यों नहीं उत्पन्न होता ? समाधान- मन:पर्ययज्ञान की उत्पत्ति अप्रमत्तसंयत गुणस्थान में होती है उसके पश्चात् प्रमत्तसंयतगुणस्थान में भी रहता है । कहा भी है- 'दोनों मन:पर्ययज्ञान विशुद्धपरिणाम में अप्रमत्तमुनि के उत्पन्न होते हैं । यहाँ पर उत्पत्तिकाल के लिये नियम है, पश्चात् प्रमत्तसंयत के भी होता है ।' ( पंचास्तिकाय पृ० ८७ रायचन्द्र ग्रन्थमाला ) । मन:पर्ययज्ञान प्रमत्त संयतगुणस्थान से लेकर क्षीणकषायवीतरागछद्मस्थ नामक बारहवें गुणस्थान तक होता है | ( धवल पु० १ पृ० ३६६ ) । यदि केवल संयम ही मन:पर्ययज्ञान की उत्पत्ति का कारण होता तो सभी संयमियों के मन:पर्ययज्ञान की उत्पत्ति हो जाती । किन्तु अन्य भी मन:पर्ययज्ञान की उत्पत्ति के कारण हैं, इसलिये उन दूसरे हेतुनों के न रहने से समस्त संयतों के मन:पर्ययज्ञान उत्पन्न नहीं होता है । विशेष जाति के द्रव्य, क्षेत्र और कालादि अन्य कारण हैं । जिनके बिना सभी संयमियों के मन:पर्ययज्ञान उत्पन्न नहीं होता । मन:पर्यय का विषय मन या पदार्थ शंका- मन:पर्ययज्ञान का विषय मात्र मन के विचारों को जान लेना है या मन में विचार किये गये पदार्थ को प्रत्यक्ष जानकर उस पदार्थ के सम्बन्ध में कुछ विशेष जानना भी है ? - धवल पु० १ पृ० ३६७ । - जै. ग. 16-4-64 / IX / एस. के. जैन समाधान- इस शंका के समाधान के लिये धवल पु० १३ पृ० ३३२ सूत्र ६३ व उसको टीका देखनी चाहिये । वह सूत्र इस प्रकार है- "मन के द्वारा मानस को जानकर मन:पर्ययज्ञान काल से विशेषित दूसरों की संज्ञा, स्मृति, मति, चिंता, जीवित-मरण, लाभालाभ, सुख-दुःख, नगरविनाश, देशविनाश, जनपदविनाश, खेटविनाश कर्वविनाश, मडवविनाश, पट्टनविनाश, द्रोणमुखविनाश, अतिवृष्टि, अनावृष्टि, सुवृष्टि, दुर्वृष्टि, सुभिक्ष, दुर्भिक्ष, क्षेम, अक्षेम, भय और रोगरूप पदार्थों को भी जानता है || ६३ || यह सूत्र श्री अकलंकदेव ने राजवार्तिक में भी उद्घृत किया है । इसके अतिरिक्त धवल पु० १३ पृ० ३३१ पर भी कहा है- "यह राज्य या यह राजा कितने दिन तक समृद्ध रहेगा, ऐसा चिन्तवन करके ऐसा ही कथन करने पर यह ज्ञान चूंकि प्रत्यक्ष से राज्य परम्परा की मर्यादा को और राजा की आयुस्थिति को जानता है ।" पृ० ३३७ पर कहा है- 'द्रव्य की अपेक्षा वह जघन्य से Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012009
Book TitleRatanchand Jain Mukhtar Vyaktitva aur Krutitva Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJawaharlal Shastri, Chetanprakash Patni
PublisherShivsagar Digambar Jain Granthamala Rajasthan
Publication Year1989
Total Pages918
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size20 MB
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