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________________ व्यक्तित्व और कृतित्व ] [ २६३ है। क्षायोपशमिकबल की वृद्धि-हानि को प्राप्त होनेवाला जीव-प्रदेशों का परिस्पन्द क्षायिकबल से वृद्धि-हानि को प्राप्त नहीं होता, क्योंकि ऐसा मानने से तो अतिप्रसंग दोष प्रा जायगा।" यहां पर विचारणीय यह है कि क्षायोपशमिकबल और क्षायिकबल में क्या अन्तर है ? यह बात सुनिश्चित है कि क्षायोपशमिकबल से क्षायिकबल में अनन्तगुणो वृद्धि हो जाती है । क्षायोपशमिकबल की उत्पत्ति वीर्यअन्तरायकर्म के क्षयोपशम के प्राधीन है। वीर्यअन्तराय कर्मके देशघातीस्पर्धकों के उदय में जैसी हानिवृद्धि होगी वैसी ही हानि-वृद्धि वीर्य में होगी। अतः क्षायोपशमिकबल वीर्यअन्त रायकर्म के देशघातीस्पर्धकों के उदय के आधीन होने से क्षायोपशमिकबल चेतना-पात्माका विभावभाव, विकारीभाव अथवा विचेतनभाव है। आयिकबल कर्मोदय आधीन नहीं होने से स्वभाव भाव है। कहा भी है कर्मणामुदयसंभवा गुणाः शामिकाः क्षयशमोद्भवाश्च ये। चित्रशास्त्रनिवहेन वणितास्ते भवन्ति निखिला-बिचेतनाः ॥४९॥ -योगसार प्राभूत अजीवाधिकार जो भाव ( गुण ) कर्मों के उदय से उत्पन्न हुए औदयिक हैं, कर्मों के उपशमजन्य औपशमिक हैं तथा कर्मों के क्षयोपशम से प्रादुर्भूत हुए क्षायोपशमिक हैं और अनेक शास्त्रों में जिनका वर्णन है वे सब भाव विचेतन हैं। क्षायोपशमिकवीर्य विकारीभाव होने से योग (विकारीभाव ) का कारण हो सकता है, किन्तु क्षायिकभाव स्वभावभाव होने के कारण योग-रूप विकारीभाव का कारण नहीं हो सकता है। यदि क्षायिकभाव भी आत्मा के विकाररूप परिणमन में कारण होने लगे तो प्रात्मा कभी शुद्ध नहीं हो सकेगा। इसीलिये धवल पु०७पृ०७६ पर कहा गया है कि क्षायिकबल योग की वृद्धि या हानि में कारण नहीं है । क्षायिकबल से योग में वृद्धि व हानि मानी जायगी तो अतिप्रसंग दोष आ जायगा। -जं. ग. 23-11-72/VII/ र. ला. जैन, मेरठ काययोग में युगपत् उपयोगद्वय सम्भव है शंका-१० ख० पु० २ में काययोगी जीवों के सामान्य आलाप में उपयोग युगपत् कहा है सो कैसे ? समाधान-सयोगीकेवली के औदारिककाययोग, औदारिकमिश्रकाययोग व कार्मणकाययोग संभव है। काययोगी जीवोंके सामान्यआलाप में चौदहगुणस्थानवर्ती सब जीव लिये गये हैं। अतः काययोगीजीवों के सामान्य आलाप में सयोगकेवली की अपेक्षा ज्ञानोपयोग व दर्शनोपयोग युगपत् संभव हैं । -जं. ग. 20-3-58/VI/ कपू. दे. प्रौदारिक काययोग व काययोग का काल शंका-गोम्मटसार जीवकाण्ड गाथा २४१ में कार्माणकाययोग के अतिरिक्त शेष योगोंका काल अव्याघात की अपेक्षा अन्तर्मुहूर्त बताया है तो इसप्रकार औवारिककाययोग का काल भी अन्तर्मुहूर्त रहा तो एकेन्नियजीवों में एक अन्तर्मुहूर्त औदारिककाययोग के पश्चात् दूसरा कौनसा योग होगा? Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012009
Book TitleRatanchand Jain Mukhtar Vyaktitva aur Krutitva Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJawaharlal Shastri, Chetanprakash Patni
PublisherShivsagar Digambar Jain Granthamala Rajasthan
Publication Year1989
Total Pages918
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size20 MB
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