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________________ २६२ ] [ पं० रतनचन्द जैन मुख्तार : चाहिये, क्योंकि उत्कृष्टयोग के बिना बहुत प्रदेशों का संचय घटित नहीं होता। क्षपितकौशिक ( जघन्यप्रदेश संचयवाले ) जीव को तत्प्रायोग्य जघन्य योगों से प्रवर्ताना चाहिये, क्योंकि अन्य प्रकार से कर्म और नोकर्म के प्रदेशों की अल्पता नहीं बन सकती है। कहा भी है __ "पदेसअप्पाबहुएत्ति जहा जोग अप्पाबहुगं णीदं तधा रणेदव्वं ॥१७४॥ जोगादो कम्मपदेसाणमागमो होदि त्ति कधं णव्वदे ? एवम्हादो चेव पदेस अप्पाबहुगसुत्तादो णव्ववे । तेण गुणिद कम्मासिओतप्पाओग्ग उक्कस्सजोगेहि चेव हिडावेवग्यो अण्णाहा बहुपदेस संचयाणुववत्तीवो। खविद कम्मसिओ वि तप्पाओग जहण्ण जोग पतीए खग्गधार सरिसीए पयट्टावेदश्वो अण्णहा कम्म-णोकम्मपदेसाणं थोवत्ताणुववत्तीदो।" धवल १० पृ० ४३१ । योग के अल्पबहुत्व के कारण प्रदेश संचय में अल्पबहुत्व होता है, अतः जिस प्रकार योग अल्पबहुत्व की प्ररूपणा की गई है उसी प्रकार प्रदेशअल्पबहुत्व की प्ररूपणा करना चाहिये । गुणितकौशिक जीव को उत्कृष्टप्रदेश संचय के लिये तत्प्रायोग्य उत्कृष्टयोगों से ही घुमाना चाहिये, क्योंकि इसके बिना उसके बहत प्रदेशों का संचय घटित नहीं होता है। क्षपितकाशिक जीव को जघन्यप्रदेश संचय के लिये तत्प्रायोग्य जघन्ययोगों को पंक्ति से प्रवर्ताना चाहिये, क्योंकि अन्य प्रकार से कर्म-नोकर्म-प्रदेशों की अल्पता नहीं बनती है। ___ वीर्यान्तरायकर्म के क्षयोपशमकी वृद्धि से योग में वृद्धि होती है, इसलिये पुद्गलप्रदेशों की हीनाधिकता संचय में वीर्यान्तरायकर्म को भी कारण कहा जा सकता है । "शरीरणामकम्मोदएण सरीरपाओग्गपोग्गलेसु बहुसु संचयं गच्छमारणेसु विरियंतराइयस्स सव्वघावि फहयाणमुदयाभावेण तेसि संतोवसमेण देसघादिफद्दयाणमुदएण समुभावावो लद्धखओवसमववएसं विरियं वदि, तं विरियं पप्प जेण जीवपदेसाणं संकोच-विकोचो वडदि तेण जोगो खओवसमिओ त्ति वुत्तो।" धवल पु० ७ पृ. ७५ । "वीरियांतराइयक्खोवसमेण कत्थ वि जोगस्स वडिमुवलक्खियं खोवसमियत्तपदुप्पयणावो घडदे ।" धवल पु० १० पृ० ४३६ । वीर्यान्तरायकर्म के क्षयोपशम में वृद्धि होने से आत्मा की शक्ति में वृद्धि होती है जिससे कर्म-नोकर्म ग्रहण की शक्ति अर्थात् योग में वृद्धि होती है। योग में वृद्धि होने से पुद्गल-प्रदेश संचय में वृद्धि होती है । -जें. ग. 23-11-72/VII/ र. ला. जैन, मेरठ [ योग हेतुक ] क्षायोपशमिक वीर्य से क्षायिकवीर्य भिन्न होता है शंका-धवल पु०७ पृ० ७६ पर लिखा है-'क्षायोपशमिकबल से क्षायिकबल भिन्न देखा जाता है।' इसका यही तो अभिप्राय हुआ कि क्षायोपमिकबल से क्षायिकबल विशेष अधिक होता है या कुछ अन्य अभिप्राय है? क्षायोपशमिकबल से जो प्रदेशपरिस्पन्दरूप योग होता है उससे बहुत अधिक क्षायिकबल से होना चाहिये ? समाधान-धवल पु०७ पृ० ७५ सूत्र ३३ में योग को क्षायोपशमिकभाव बतलाया गया है, क्योंकि क्षायोपशमिकवीर्य में हानि-वृद्धि होने से योग में हानि-वृद्धि होती है। इस पर यह शंका की गई कि यदि क्षायोपशमिकवीर्य में हानि-वृद्धि से यदि योग में हानि-वृद्धि होती है तो सिद्ध भगवान में क्षायिकवीर्य हो जाने से योग की बहुलता का प्रसंग आता है ? इसके समाधान में कहा गया है-"क्षायोपशमिकबल से क्षायिकबल भिन्न देखा जाता Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012009
Book TitleRatanchand Jain Mukhtar Vyaktitva aur Krutitva Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJawaharlal Shastri, Chetanprakash Patni
PublisherShivsagar Digambar Jain Granthamala Rajasthan
Publication Year1989
Total Pages918
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size20 MB
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