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________________ व्यक्तित्व और कृतित्व ] [ २६॥ योग और क्षायोपशमिक वीर्य में कार्य-कारण सम्बन्ध है शंका-वीर्य आत्मा का स्वतन्त्र गुण है तब उसका योग से क्या सम्बन्ध है ? समाधान-क्षायोपशमिकवीर्य की वृद्धि से योग में वृद्धि होती है, अतः क्षायोपशमिकवीर्य व योग में कारण-कार्य सम्बन्ध है। कहा भी है "विरियंतराइयस्स सव्वधादिफयाणमुवयाभावेण तेसि संतोवसमेण देसघादिफयाणमुबएण समुभवादो लद्धखोवसमववएसं विरियं वड्ढदि, तं विरियं पप्प जेण जीवपदेसाणं संकोचविकोचो वड्दि तेण जोगो खओवसमिओ त्ति वुत्तो। विरियंतराइयखओवसम जणिदवलवडिहाणीहितो जदि जीवपदेसपरिप्फंदस्स वडिहाणीओ होंति तो पम्मि सिद्ध जोगवहत्तं पसज्जदे ? ण खओवसमियबलादो खइयस्स बलस्स पुधत्तदंसणादो। ण च खओ. वसमियबलवद्वि-हाणीहितो वडि-हाणीणं गच्छमाणो जीवपदेसपरिप्फंदो खइयबलादो वडिहाणीणं गच्छदि, अइप्पसंगादो। जति जोगो वीरियंतराइय खोवसमजणिदो तो सजोगिम्हि जोगाभावो पसज्जदे ? ण, उवयारेणखओवसमियं भावं पत्तस्स ओदइयस्स जोगस्स तत्थाभावविरोहादो।" धवल पु०७ पृ० ७५-७६ । अर्थ-वीर्यान्तरायकर्म के सर्वघातीस्पर्धकों के उदयाभाव से व उन्हीं स्पर्धकों के सत्त्वोपशम से तथा देशघातीस्पर्धकों के उदय से उत्पन्न होने के कारण क्षायोपशमिक कहलानेवाला वीर्य ( बल ) बढ़ता है तब उस को पाकर अर्थात उस वीर्य के कारण चूकि जीव-प्रदेशों का संकोच-विकोच बढ़ता है, इसलिये योग क्षायोपशमिक कहा गया है। यहाँ पर यह शंका होती है-यदि वीर्यान्तराय के क्षयोपशम से उत्पन्न हुए बल की वृद्धि और हानि से प्रदेशों के परिस्पंद की वृद्धि और हानि होती है, तब तो जिसके अन्तरायकर्म क्षीण हो गया है ऐसे सिद्ध जीव में योग की बहुलता का प्रसंग आता है ? आचार्य कहते हैं-सिद्ध जीव में योग की बहुलता का प्रसंग नहीं प्राता है, क्योंकि क्षायोपशमिकबल से क्षायिकबल निरन्तर भिन्न देखा जाता है, क्षायोपशमिकबल की वृद्धिहानि से वृद्धिहानि को प्राप्त होने वाला जीवप्रदेशों का परिस्पन्द क्षायिक बल से वृद्धि-हानि को प्राप्त नहीं होता, क्योंकि ऐसा मानने से तो अतिप्रसंग दोष आ जायगा। पुनः शंका-यदि योग वीर्यान्तराय कर्म के क्षयोपशम से उत्पन्न होता है तो सयोगिकेवली में योग के अभाव-का प्रसंग आता है। आचार्य कहते हैं कि सयोगिकेवली में योग के अभाव का प्रसंग भी नहीं आता है, क्योंकि योग में क्षायोपशमिकभाव तो उपचार से माना गया है, असल में तो योग औदयिकभाव ही है और औदयिकयोग का सयोगिकेवली में प्रभाव मानने में विरोध आता है। षटखण्डागम में वीर्यान्तरायकर्म के क्षयोपशम के कारण ही योग को क्षायोपशमिकभाव कहा गया है, क्योंकि वीर्यान्तरायकर्म के क्षयोपशम से वीर्य में हानि-वृद्धि होती है और वीर्य की हानि-वृद्धि से योग में हानि-वद्धि होती है, इसप्रकार योग और क्षायोपशमिकवीर्य में कार्य कारण संबंध है । -जं. ग. 16-7-70/ / रो. ला. मि. हीनाधिक कर्म-ग्रहण में योग व वीर्य क्रमशः साक्षात् व परम्परया कारण हैं शंका-आत्मा में जो कर्म-नोकर्मपुद्गलों का संचय होता है उसकी हीनाधिकता में कारण क्या है ? क्या शरीरनामकर्म कारण है या वीर्यान्तरायकर्म का क्षयोपशम कारण है ? समाधान-कर्म-नोकर्मप्रदेशों के हीनाधिक संचय में कारण योग है, क्योंकि योग से कर्म व नोकर्मप्रदेशों का आगमन होता है। गुणित कर्माशिक (प्रदेश बहुत संचय वाले) जीव को तत्प्रायोग्य उत्कृष्टयोगों से ही घुमाना Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012009
Book TitleRatanchand Jain Mukhtar Vyaktitva aur Krutitva Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJawaharlal Shastri, Chetanprakash Patni
PublisherShivsagar Digambar Jain Granthamala Rajasthan
Publication Year1989
Total Pages918
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size20 MB
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